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प्रस्तावना
दूसरे आक्षेप का समाधान-प्राणी जैसा कर्म करते हैं वैसा फल उनको कर्म के द्वारा ही मिल जाता है। कर्म जड़ है और प्राणी अपने किये बुरे कर्म का फल नहीं चाहते यह ठीक है, पर यह ध्यान में रखना चाहिये कि जीव केचेतन के संग से कर्म में ऐसी शक्ति पैदा हो जाती है जिससे वह अपने अच्छेबुरे विपाकों को नियत समय पर जीव पर प्रकट करता है। कर्मवाद यह नहीं मानता कि चेतन से सम्बन्ध के बिना ही जड़ कर्म भोग देने में समर्थ है। वह इतना ही कहता है कि फल देने के लिये ईश्वर-रूप चेतन की प्रेरणा मानने की कोई जरूरत नहीं। क्योंकि सभी जीव चेतन हैं वे जैसा कर्म करते हैं उसके अनुसार उनकी बुद्धि वैसी ही बन जाती है, जिससे बरे कर्म के फल की इच्छा न रहने पर भी वे ऐसा कृत्य कर बैठते हैं कि जिससे उनको अपने कर्मानुसार फल मिल जाता है। कर्म करना एक बात है और फल को न चाहना दुसरी बात, केवल चाहना न होने ही से किये कर्म का फल मिलने से रुक नहीं सकता। सामग्री इकट्ठी हो गई फिर कार्य आप ही आप होने लगता है। उदाहरणार्थ-एक मनुष्य धूप में खड़ा है, गर्म चीज खाता है और चाहता है कि प्यास न लगे; सो क्या किसी तरह प्यास रुक सकती है? ईश्वर कर्तृत्ववादी कहते हैं कि ईश्वर की इच्छा से प्रेरित होकर कर्म अपना-अपना फल प्राणियों पर प्रकट करते हैं। इस पर कर्मवादी कहते हैं कि कर्म करने के समय परिणामानुसार जीव में ऐसे संस्कार पड़ जाते हैं कि जिससे प्रेरित होकर कर्ता जीव कर्म के फल को आप ही भोगता है और कर्म उस पर अपने फल को आप ही प्रकट करता है।
तीसरे आक्षेप का समाधान–ईश्वर चेतन है और जीव भी चेतन; फिर उनमें अन्तर ही क्या है? हाँ! अन्तर इतना हो सकता है कि जीव की सभी शक्तियाँ आवरणों से घिरी हुई हैं और ईश्वर की नहीं। पर जिस समय जीव अपने आवरणों को हटा देता है, उस समय तो उसकी सभी शक्तियाँ पूर्ण रूप में प्रकाशित हो जाती हैं। फिर जीव और ईश्वर में विषमता किस बात की? विषमता का कारण तो औपाधिक कर्म है, उसके हट जाने पर भी यदि विषमता बनी रही तो फिर मुक्ति ही क्या है? विषमता का राज्य संसार तक ही परिमित है आगे नहीं। इसलिये कर्मवाद के अनुसार यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि सभी मुक्त जीव ईश्वर ही हैं। केवल विश्वास के बल पर यह कहना कि ईश्वर एक ही होना चाहिये उचित नहीं। सभी आत्मा तात्त्विक दृष्टि से ईश्वर ही हैं; केवल बन्धन के कारण वे छोटे-मोटे जीव रूप में देखे जाते हैं-यह सिद्धान्त सभी को अपना ईश्वरत्व प्रकट करने के लिए पूर्ण बल देता है।
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