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________________ प्रस्तावना xlv जंगम जीव की या समान गुणस्थान वाले किन्तु भिन्न-भिन्न-योग-युक्त जीव की या समान गुणस्थान वाले भिन्न-भिन्न-लिङ्ग (वेद) धारी जीव की या समान गुणस्थान वाले किन्तु विभिन्न कषाय वाले जीव की बन्ध योग्यता बराबर ही होती है या न्यूनाधिक? इस तरह ज्ञान, दर्शन, संयम आदि गुणों की दृष्टि से भिन्नभिन्न प्रकार के परन्तु गुणस्थान की दृष्टि से समान प्रकार के जीवों की बन्ध योग्यता के सम्बन्ध में कई प्रश्न उठते हैं। इन प्रश्नों का उत्तर तीसरे कर्मग्रन्थ में दिया गया है। इसमें जीवों की गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय आदि चौदह अवस्थाओं को लेकर गुणस्थान-क्रम से यथासंभव बन्ध-योग्यता दिखाई है, जो आध्यात्मिक दृष्टि वालों को बहुत मनन करने योग्य है। दूसरे कर्मग्रन्थ के ज्ञान की अपेक्षा-दूसरे कर्मग्रन्थ में गुणस्थानों को लेकर जीवों की कर्म-बन्ध-सम्बन्धिनी योग्यता दिखाई है और तीसरे में मार्गणाओं को लेकर मार्गणाओं में भी सामान्य-रूप से बन्ध-योग्यता दिखाकर फिर प्रत्येक मार्गणा में यथासंभव गुणस्थानों को लेकर योग्यता दिखाई गई है। इसीलिये उक्त दोनों कर्मग्रन्थों के विषय भिन्न होने पर भी उनका आपस में इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि जो दूसरे कर्मग्रन्थ को अच्छी तरह न पढ़ ले वह तीसरे का अधिकारी ही नहीं हो सकता। अत: तीसरे के पहले दूसरे का ज्ञान कर लेना चाहिये। प्राचीन और नवीन तीसरा कर्मग्रन्थ-ये दोनों, विषय में समान हैं। नवीन की अपेक्षा प्राचीन में विषय-वर्णन कुछ विस्तार से किया है; यही भेद है। इसी से नवीन में जितना विषय २५ गाथाओं में वर्णित है उतना ही विषय प्राचीन में ५४ गाथाओं में। ग्रन्थकार ने अभ्यासियों की सरलता के लिए नवीन कर्मग्रन्थ की रचना में यह ध्यान रक्खा है कि निष्प्रयोजन शब्द-विस्तार न हो और विषय पूरा आ जाये। इसीलिए गति आदि मार्गणा में गुणस्थानों की संख्या का निर्देश जैसा प्राचीन कर्मग्रन्थ में बन्ध-स्वामित्व के कथन से अलग किया है नवीन कर्मग्रन्थ में वैसा नहीं किया है; किन्तु यथासंभव गुणस्थानों को लेकर बन्ध-स्वामित्व दिखाया है, जिससे उनकी संख्या को अभ्यासी आप ही जान ले। नवीन कर्मग्रन्थ है संक्षिप्त, पर वह इतना पूरा है कि इसके अभ्यासी थोड़े ही में विषय को जान कर प्राचीन बन्ध-स्वामित्व को बिना टीका-टिप्पणी की मदद के जान सकते हैं इसी से पठन-पाठन में नवीन तीसरे का प्रचार है। गोम्मटसार के साथ तुलना-तीसरे कर्मग्रन्थ का विषय कर्मकाण्ड है, पर उसकी वर्णन-शैली कुछ भिन्न है। इसके सिवाय तीसरे कर्मग्रन्थ में जो- जो विषय नहीं हैं और दूसरे के सम्बन्ध की दृष्टि से जिस-जिस विषय का वर्णन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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