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________________ १४१ कर्मग्रन्थभाग-२ मतान्तर और उपसंहार नरअणुपुस्विविणा वा बारस चरिमसमयमि जो खविउं। पत्तो सिद्धिं देविंदवंदियं नमह तं वीरं।। ३४।। नरानुपूर्वी विना वा द्वादश चरम-समये यः क्षपयित्वा। प्राप्तस्सिद्धिं देवेन्द्रवन्दितं नमत तं वीरम् ।। ३४।। अर्थ-अथवा पूर्वोक्त तेरह कर्म-प्रकृतियों में से मनुष्य आनुपूर्वी को छोड़कर शेष १२ कर्म-प्रकृतियों को चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में क्षीणकर जो मोक्ष को प्राप्त हुये हैं, और देवेन्द्रों ने तथा देवेन्द्रसूरि ने जिनका वन्दन स्तुति तथा प्रणाम) किया है, ऐसे परमात्मा महावीर को तुम सब लोग नमन करो।।३४॥ भावार्थ किन्हीं आचार्यों का ऐसा भी मत है कि चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में मनुष्य-त्रिक आदि पूर्वोक्त १३ कर्म-प्रकृतियों में से, मनुष्यआनुपूर्वी के बिना शेष १२ कर्म-प्रकृतियों की ही सत्ता रहती है। क्योंकि देवद्विक आदि पूर्वोक्त ७२ कर्म-प्रकृतियाँ, जिनका कि उदय नहीं है वे जिस प्रकार द्विचरम समय में स्तिबुकसंक्रम द्वारा उदयवती कर्म-प्रकृतियों में संक्रान्त होकर, क्षीण हो जाती हैं, इसी प्रकार उदय न होने के कारण मनुष्यआनुपूर्वी भी द्विचरमसमय में ही स्तिबुकसंक्रम-द्वारा उदयवती कर्म-प्रकृतियों में संक्रान्त हो जाती है। इसलिये द्विचरम-समय में उदयवती कर्म-प्रकृति में संक्रान्त पूर्वोक्त देव-द्विक आदि ७२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता चरम-समय में जैसे नहीं मानी जाती है वैसे ही द्विचरम-समय में उदयवती कर्म-प्रकृति में संक्रान्त मनुष्य-आनुपूर्वी की सत्ता को भी चरम-समय में न मानना ठीक है। (अनुदयवती कर्म-प्रकृति के दलिकों को सजातीय और तुल्यस्थितिवाली उदयवती कर्म-प्रकृति के रूप में बदलकर उसके दलिकों के साथ भोग लेना; इसे 'स्तिबुकसंक्रम' कहते हैं) इस 'कर्मस्तव' नामक दूसरे कर्मग्रन्थ के रचयिता श्रीदेवेन्द्रसूरि हैं। ये देवेन्द्रसूरि, तपागच्छाचार्य श्रीजगच्चन्द्रसूरि के शिष्य थे।।३४॥ ।। सत्ताधिकारः समाप्तः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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