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________________ कर्मग्रन्थभाग-२ १३९ बिसयरिखओ य चरिमे तेरस मणुयतसतिग-जसाइज्जं । सुभगजिणुच्चपणिंदिय-सायासाएगयरछेओ ।।३३।। द्वासप्ततिक्षयश्च चरमे त्रयोदश मनुजत्रसत्रिकयशआदेयम् । सुभगजिनोच्चपञ्चेन्द्रिय- सातासातैकतरच्छेदः ।। ३३।। अर्थ-नौवें गुणस्थान के नौ भागों में से पहले भाग में १३८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता पूर्व गाथा में कही हुई है। उनमें से स्थावर-द्विक (स्थावर और सूक्ष्मनामकर्म) २, तिर्यञ्च-द्विक (तिर्यञ्चगति और तिर्यञ्च-आनपूर्वीनाम-कर्म) ४, नरकद्विक-(नरकगति और नरक-आनुपूर्वी) ६, आतपद्विक-(आतपनामकर्म और उद्योतनामकर्म) ८, स्त्यानर्द्धि-त्रिक-(निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानर्द्धि) ११, एकेन्द्रियजातिनामकर्म १२, विकलेन्द्रिय-(द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय-जातिनामकर्म) १५ और साधारणनामकर्म १६-इन सोलह कर्मप्रकृतियों का क्षय प्रथम भाग के अन्तिम समय में हो जाता है; इससे दूसरे भाग में १२२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता शेष रहती है तथा १२२ में से अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क और प्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क-इन आठ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का क्षय दूसरे भाग के अन्तिम समय में हो जाता है।।२८।। ____अर्थ—अतएव, तीसरे भाग में ११४ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है। तीसरे भाग के अन्तिम-समय में नपुंसकवेद का क्षय हो जाने से, चौथे भाग में ११३ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इस प्रकार चौथे भाग के अन्तिम समय में स्त्रीवेद का अभाव होने से पाँचवें भाग में ११२, पाँचवें भाग के अन्तिम-समय में हास्य-षट्क का क्षय होने से छठे भाग में १०६, छठे भाग के चरम समय में पुरुष-वेद का अभाव हो जाता है। इससे सातवें भाग में १०५, सातवें भाग के अन्तिम समय में संज्वलनक्रोध का क्षय होने से आठवें भाग में १०४ और आठवें भाग के अन्तिम-समय में संज्वलनमान का अभाव होने से नौवें भाग में १०३ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता शेष रहती है तथा नौवें गुणस्थान के नवम भाग के अन्तिम समय में संज्वलन-माया का क्षय हो जाता है।।२९।। ___अर्थ-अतएव, दसवें गुणस्थान में १०२ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है। दसवें गुणस्थान के अन्तिम-समय में लोभ का अभाव होता है, इससे बारहवें गुणस्थान के द्विचरम-समय-पर्यन्त १०१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता पायी जाती है। द्विचरम-समय में निद्रा और प्रचला—इन २ कर्म-प्रकृतियों का क्षय हो जाता है जिससे बारहवें गुणस्थान के अन्तिम-समय में ९९ कर्म-प्रकृतियाँ सत्तागत रहती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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