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________________ प्रस्तावना कर्मवाद का मन्तव्य कर्मवाद का मानना यह है कि सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, ऊँच-नीच आदि जो अनेक अवस्थाएँ दृष्टिगोचर होती हैं, उनके होने में काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि अन्य-अन्य कारणों की तरह कर्म भी एक कारण है। परन्तु अन्य दर्शनों की तरह कर्मप्रधान जैन दर्शन ईश्वर को उक्त अवस्थाओं का या सृष्टि की उत्पत्ति का कारण नहीं मानता। दूसरे दर्शनों में किसी समय सृष्टि का उत्पन्न होना माना गया है; अतएव उनमें सृष्टि की उत्पत्ति के साथ किसी न किसी तरह से ईश्वर का सम्बन्ध जोड़ दिया गया है। न्यायदर्शन में कहा है कि अच्छेबुरे कर्म के फल ईश्वर की प्रेरणा से मिलते हैं- 'तत्कारितत्त्वादहेतुः' (गौतमसूत्र अ. ४ आ. १ सू. २१) वैशेषिक दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मान कर, उसके स्वरूप का वर्णन किया है—(देखिए, प्रशस्तपाद-भाष्य पृ. ४८)। योगदर्शन में ईश्वर के अधिष्ठान से प्रकृति का परिणाम जड़ जगत् का फैलाव-माना है। (देखिए, समाधिपाद सू. २४ का भाष्य व टीका)। श्री शङ्कराचार्य ने भी अपने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में, उपनिषद् के आधार पर जगह-जगह ब्रह्म को सृष्टि का उपादान कारण सिद्ध किया है; जैसे 'चेतनमेकमद्वितीयं ब्रह्म क्षीरादिवदेवादिवच्चानपेक्ष्य बाह्यसाधनं स्वयं परिणममानं जगतः कारणमिति स्थितम्।' (ब्रह्म. २-१-२६ का भाष्य) __'तस्मादशेषवस्तुविषयमेवेदं सर्वविज्ञानं सर्वस्य ब्रह्मकार्यतापेक्षयोपन्यस्यत इति द्रष्टव्यम् ।' (ब्रह्म. अ. २ पा. ३ अ. १ सू. ६ का भाष्य) 'अत: श्रुतिप्रामाण्यादेकस्माद्ब्रह्मण आकाशादिमहाभूतोत्पत्तिक्रमेण जगज्जातमिति निश्चीयते ।' (ब्रह्म. अ. २ पा. ३ अ. १ सू. ७ का भाष्य) परन्तु जीवों से फल भोगवाने के लिए जैन दर्शन ईश्वर को कर्म का प्रेरक नहीं मानता। क्योंकि कर्मवाद का मन्तव्य है कि जैसे जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है वैसे ही उसके फल को भोगने में भी। कहा है कि—'य: कर्ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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