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________________ कर्मग्रन्थभाग-२ १२३ नहीं होते। इस प्रकार दुर्भग-नामकर्म, अनादेय-नामकर्म और अयश:कीर्तिनामकर्म, ये तीनों प्रकृतियाँ, पहले चार गुणस्थानों में ही उदय को पा सकती हैं; क्योंकि पञ्चम-आदि गुणस्थानों के प्राप्त होने पर, जीवों के परिणाम इतने शुद्ध हो जाते हैं कि जिससे उस समय, उन तीन प्रकृतियों का उदय हो ही नहीं सकता। अतएव चौथे गुणस्थान में उदययोग्य जो १०४ कर्म-प्रकृतियाँ कही हुई हैं उनमें से अप्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क आदि पूर्वोक्त १७ कर्मप्रकृतियों को घटा कर, शेष ८७ कर्म-प्रकृतियों का उदय पाँचवें गुणस्थान में माना जाता है। पञ्चम-गुणस्थानवी मनुष्य और तिर्यश्च दोनों ही, जिनको कि वैक्रियलब्धि प्राप्त हुई है, वैक्रियलब्धि के बल से वैक्रियशरीर को तथा वैक्रियअङ्गोपाङ्ग को बना सकते हैं। इसी तरह छठे गुणस्थान में वर्तमान वैक्रियलब्धिसम्पन्न, मुनि भी वैक्रिय-शरीर तथा वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग को बना सकते हैं। उस समय उन मनुष्यों को तथा तिर्यश्चों को, वैक्रियशरीर नामकर्म का तथा वैक्रियअङ्गोपाङ्ग-नामकर्म का उदय अवश्य रहता है इसीलिये, यद्यपि यह शङ्का हो सकती है कि पाँचवें तथा छठे गुणस्थान की उदय-योग्य प्रकृतियों में वैक्रियशरीर-नाम-कर्म तथा वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग-नामकर्म इन दो प्रकृतियों की गणना क्यों नहीं की जाती है? तथापि इसका समाधान इतना ही है कि, जिनको जन्मपर्यन्त वैक्रिय-शरीर-नामकर्म का तथा वैक्रिय-अङ्गोपाङ्ग-नामकर्म का उदय रहता है उनकी (देव तथा नारकों की) अपेक्षा से ही उक्त दो प्रकृतियों के उदय का विचार इस जगह किया गया है। मनुष्यों में और तिर्यश्चों में तो कुछ समय के लिये ही उक्त दो प्रकृतियों का उदय हो सकता है, वह भी सब मनुष्यों और तिर्यञ्चों में नहीं। इसी से मनुष्यों और तिर्यञ्चों की अपेक्षा से पाँचवें तथा छठे गुणस्थान में, उक्त दो कर्म-प्रकृतियों के उदय का सम्भव होने पर भी, उसकी विवक्षा नहीं की है। जिन ८७ कर्म-प्रकृतियों का उदय पाँचवें गुणस्थान में माना जाता है उन में से तिर्यञ्च-गति, तिर्यञ्च-आयु, नीचगोत्र, उद्योत-नामकर्म और प्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क इन ८ कर्म-प्रकृतियों को छोड़कर, शेष ७९कर्म-प्रकृतियों का उदय, छठे गुणस्थान में हो सकता है। तिर्यञ्च-गति आदि उक्त आठ कर्म-प्रकृतियों का उदय, पाँचवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही हो सकता है, आगे नहीं। इसका कारण यह है कि, तिर्यञ्च-गति, तिर्यञ्च-आयु और उद्योत नामकर्म इन तीन प्रकृतियों का उदय तो तिर्यञ्चों को ही होता है परन्तु तिर्यञ्चों में पहले पाँच गुणस्थान ही हो सकते हैं, आगे के गुणस्थान नहीं। नीच Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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