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________________ कर्मग्रन्थभाग-२ संयत-नाम के छठे गुणस्थान में हो सकता है। छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में शोक, अरक्ति अस्थिरद्विक, अयश:कीर्तिनामकर्म और असातावेदनीय इन छ: कर्म-प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इससे उन छ: कर्म-प्रकृतियों का बन्ध छटे गुणस्थान से आगे के गुणस्थानों में नहीं होता। यदि कोई छठे गुणस्थान में देव-आयु के बन्ध का प्रारम्भ कर उसे उसी गुणस्थान में पूरा कर देता है, तो उस जीव की अपेक्षा से अरति, शोक-आदि उक्त ६-कर्म-प्रकृतियाँ तथा देवआयु कुल ७ कर्म-प्रकृतियों का भी बन्ध-विच्छेद छठे गुणस्थान के अन्तिमसमय में माना जाता है।।७।। जो जीव छठे गुणस्थान में देव-आय के बन्ध का प्रारम्भ कर उसे उसी गुणस्थान में समाप्त किये बिना ही, सातवें गुणस्थान को प्राप्त करता है अर्थात्छठे गुणस्थान में देव आयु का बन्ध प्रारम्भ कर सातवें गुणस्थान में ही उसे समाप्त करता है, उस जीव को सातवें गणस्थान में ५९-कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है। इसके विपरीत जो जीव छठे गुणस्थान में प्रारम्भ किये गये देव-आयु के बन्ध को, छठे गणस्थान में ही समाप्त करता है-अर्थात् देव-आय का बन्ध समाप्त करने के बाद ही सातवें गणस्थान को प्राप्त करता है उस जीव को सातवें गुणस्थान में ५८ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है; क्योंकि सातवें गुणस्थान में आहारकद्विक का बन्ध भी हो सकता है।।८।। भावार्थ-चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने से तीर्थङ्करनामकर्म बाँधा जा सकता है। तथा चौथे गुणस्थान में वर्तमान देव तथा नारक, मनुष्य-आयु को बाँधते हैं। और चतुर्थ गुणस्थानवर्ती मनुष्य तथा तिर्यश्च देव-आयु को बाँधते हैं। इसी तरह चौथे गुणस्थान में उन ७४ कर्म-प्रकृतियों का भी बन्ध हो सकता है, जिनका कि बन्ध तीसरे गुणस्थान में होता है अतएव सब मिलाकर ७७ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध चौथे गुणस्थानक में माना जाता है। अप्रत्याख्यानावरणक्रोध-मान-माया और लोभ इन चार कषायों का बन्ध चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही होता है, इससे आगे के गुणस्थानों में नहीं होता; क्योंकि पञ्चमआदि गुणस्थानों में अप्रत्याख्यानावरण-कषाय का उदय नहीं होता और कषाय के बन्ध के लिये यह साधारण नियम है कि जिस कषाय का उदय जितने गुणस्थानों में होता है उतने गुणस्थानों में ही उस कषाय का बन्ध हो सकता है। मनुष्यगति मनुष्य-आनुपूर्वी और मनुष्य-आयु ये तीन कर्म-प्रकृतियाँ केवल मनुष्य-जन्म में ही भोगी जा सकती हैं। इसलिये उनका बन्ध भी चौथे गुणस्थान के अन्तिम समय तक ही हो सकता है। क्योंकि पाँचवें-आदि गुणस्थानों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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