SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मग्रन्थभाग- २ १०९ नरक - त्रिक से लेकर मिथ्यात्व - मोहनीय - पर्यन्त, जो १६ कर्म - प्रकृतियाँ ऊपर दिखाई गई हैं वे अत्यन्त अशुभरूप हैं तथा बहुत कर नारक - जीवों के, एकेन्द्रिय जीवों के और विकलेन्द्रिय जीवों के योग्य हैं। इसी से ये सोलह कर्मप्रकृतियाँ मिथ्यात्व - मोहनीयकर्म के उदय से ही बाँधी जाती हैं। मिथ्यात्व - मोहनीयकर्म का उदय पहले गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है दूसरे गुणस्थान के समय नहीं । अतएव मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से बँधनेवाली उक्त १६ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध भी पहले गुणस्थान के अन्तिम समय तक हो सकता है। दूसरे गुणस्थान के समय नहीं । इसीलिये पहले गुणस्थान में जिन ११७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध कहा गया है उनमें से उक्त १६ कर्म- प्रकृतियों को छोड़कर शेष १०१ -कर्म-प्रकृतियों का बन्ध दूसरे गुणस्थान में माना जाता है। तिर्यञ्चत्रिकशब्द से तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्च - आनुपूर्वी और तिर्यञ्च आयु इन तीन प्रकृतियों का ग्रहण होता है। स्त्यानर्द्धित्रिक शब्द से निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानर्द्धि इन तीन कर्म-प्रकृतियों का तथा दुर्भमत्रिक- शब्द से दुर्भगनामकर्म, दुः खरनामकर्म और अनादेयनामकर्म इन तीन कर्म- प्रकृतियों का ग्रहण होता है । अनन्तानुबन्धि-चतुष्कशब्द, अनन्तानुबन्धिक्रोध, अनन्तानुबन्धिमान, अनन्तानुबन्धिमाया और अनन्तानुबन्धिलोभ इन चार कषायों का बोधक है। मध्यमसंस्थान-चतुष्कशब्द आदि के और अन्त के संस्थान को छोड़ मध्य के शेष चार संस्थानों का बोधक है। जैसे— न्यग्रोधपरिमण्डल - संस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान और कुब्जसंस्थान। इसी तरह मध्यम- संहननचतुष्क शब्द से आदि और अन्त के संहनन के अतिरिक्त बाद के चार संहनन ग्रहण किये जाते हैं। वे चार संहनन ये हैं - ऋषभनाराचसंहनन, नाराचसंहनन, अर्धनाराचसंहनन और कोलिकासंहनन । तिर्यञ्चत्रिक से लेकर स्त्रीवेदपर्यन्त जो २५ कर्म - प्रकृतियाँ ऊपर कही हुई हैं उनका बन्ध अनन्तानुबन्धि-कषाय के उदय से होता है - अनन्तानुबन्धिकषाय का उदय पहले और दूसरे गुणस्थानक में ही होता है, तीसरे आदि गुणस्थानों में नहीं। इसी से तिर्यञ्चत्रिक आदि उक्त पच्चीसकर्म - प्रकृतियाँ भी दूसरे गुणस्थान के चरमसमयपर्यन्त ही बाँधी जा सकती हैं, परन्तु तीसरे आदि गुणस्थानों में नहीं बाँधी जा सकती। तीसरे गुणस्थान के समय जीव का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जिससे उस समय आयु का बन्ध होने नहीं पाता। इसी से मनुष्य- आयु तथा देव - आयु इन दो आयुओं का बन्ध भी तीसरे गुणस्थानक में नहीं होता । नरक - आयु तो नरकत्रिक आदि पूर्वोक्त १६ कर्म-प्रकृतियों में ही गिनी जा चुकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy