SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मग्रन्थभाग- २ १०७ विहायोगतिनामकर्म, इस प्रकार ३९ भेद बारह पिण्ड - प्रकृतियों के हुये; क्योंकि बन्धननामकर्म और संघातननामकर्म- इन दो पिण्ड - प्रकृतियों का समावेश शरीरनामकर्म में ही किया जाता है। (१) पराघात-नामकर्म, (२) उपघातनामकर्म, (३) उच्छ्वासनामकर्म, (४) आतपनामकर्म, (५) उद्योतनामकर्म, (६) अगुरुलघुनामकर्म, (७) तीर्थङ्करनामकर्म (८) निर्माणनामकर्म ये आठ प्रत्येकनामकर्म । (१) त्रसनामकर्म, (२) बादरनामकर्म, (३) अपर्याप्तनामकर्म, (४) प्रत्येकनामकर्म, (५) स्थिरनामकर्म (७) सुभगनामकर्म, (८) सुस्वरनामकर्म, (१०) यश: कीर्त्तिनामकर्म — ये त्रसदशकनामकर्म (१) स्थावरनामकर्म, (२) सूक्ष्मनामकर्म, (४) साधारणनामकर्म, (५) अस्थिरनामकर्म, (६) अशुभनामकर्म, (७) दुर्भगनामकर्म, (८) दुःस्वर- नामकर्म, (९) अनादेयनामकर्म और (१०) अयशः कीर्त्तिनामकर्म-ये स्थावरदशकनामकर्म। ये कुल ६७ भेद हुये । ७. गोत्र कर्म की दो प्रकृतियाँ, जैसे- (१) उच्चैर्गोत्र और (२) नीचैर्गोत्र । ८. अन्तरायकर्म की पाँच कर्म-प्रकृतियाँ, जैसे – (१) दानान्तराय, ( २ ) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय, और (4) वीर्यान्तराय । (३) पर्याप्तनामकर्म, (६) शुभनामकर्म, (९) आदेयनामकर्म और इन १२० कर्म - प्रकृतियों में से तीर्थङ्करनामकर्म, आहारक शरीर और आहारकअङ्गोपाङ्ग इन तीन कर्म- प्रकृतियों का बन्ध, मिथ्यात्वगुणस्थानवर्ती जीवों को नहीं होता। इसका कारण यह है कि तीर्थङ्करनामकर्म का बन्ध, सम्यक्त्व से होता है और आहारक-द्विक का बन्ध, अप्रमत्तसंयम से। परन्तु मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में जीवों को न तो सम्यक्त्व ही सम्भव है और न अप्रमत्तसंयम ही; क्योंकि चौथे गुणस्थान से पहले सम्यक्त्व हो ही नहीं सकता तथा सातवें गुणस्थान से पहले अप्रमत्तसंयम भी नहीं हो सकता । उक्त तीन कर्म-प्रकृतियों के बिना शेष ११७ कर्म - प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चार कारणों से होता है, इसी से मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में वर्तमान जीव शेष ११७ कर्म - प्रकृतियों को यथासम्भव बाँध सकते हैं || ३ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy