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कर्मग्रन्थभाग-२
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रूप से परिणमन मिथ्यात्व-आदि हेतुओं से होता है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय
और योग ये चार, जीव के वैभाविक (विकृत) स्वरूप हैं, और इसी से वे, कर्म-पुद्गलों के कर्म-रूप बनने में निमित्त होते हैं। कर्म-पुद्गलों में जीव के ज्ञान-दर्शन आदि स्वाभाविक गुणों को आवरण करने की शक्ति का हो जाना यही कर्म-पुद्गलों का कर्म-रूप बनना कहलाता है। मिथ्यात्व-आदि जिन वैभाविक स्वरूपों से कर्म-पुद्गल कर्म-रूप बन जाते हैं, उन वैभाविक-स्वरूपों को भाव-कर्म समझना चाहिये और कर्म-रूप परिणाम को प्राप्त हुए पुद्गलों को द्रव्य-कर्म समझना चाहिये। पहले ग्रहण किये गये द्रव्य-कर्म के अनुसार भावकर्म होते हैं और भाव-कर्म के अनुसार फिर से नवीन द्रव्यकर्मों का सम्बन्ध होता है। इस प्रकार द्रव्य-कर्म से भाव-कर्म और भाव-कर्म से द्रव्य-कर्म ऐसी कार्य-कारण-भाव की अनादि परम्परा चली आती है। आत्मा के साथ बँधे हये कर्म जब परिणाम-विशेष से एक स्वभाव का परित्याग कर दूसरे स्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं तब उस स्वाभावान्तर-प्राप्ति को संक्रमण समझना चाहिये; बन्ध नहीं। इसी अभिप्राय को जनाने के लिये कर्म-ग्रहण मात्र को बन्ध न कह कर, गाथा में अभिनव-कर्म-ग्रहण को बन्ध कहा है। जीव के मिथ्यात्व आदि परिणामों के अनुसार कर्म-पुद्गल १२० रूपों में परिणत हो सकते हैं इसी से १२० कर्म-प्रकृतियाँ बन्ध योग्य मानी जाती हैं। यद्यपि कोई एक जीव किसी भी अवस्था में एक समय में कर्म-पुद्गलों को १२० रूपों में परिणत नहीं कर सकताअर्थात् १२० कर्म-प्रकृतियों को बाँध नहीं सकता; परन्तु अनेक जीव एक समय में ही १२० कर्म-प्रकृतियों को बाँध सकते हैं। इसी तरह एक जीव भी भिन्नभिन्न अवस्था में भिन्न-भिन्न समय सब मिलाकर १२० कर्म-प्रकृतियों को भी बाँध सकता है। अतएव ऊपर कहा गया है कि किसी खास गणस्थान की, और किसी खास जीव की विवक्षा किये बिना बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियाँ १२० मानी जाती हैं। इसी से १२० कर्म-प्रकृतियों के बन्ध को सामान्य बन्ध या ओघबन्ध कहते हैं।
बन्ध-योग्य १२० कर्म-प्रकृतियाँ ये हैं१. ज्ञानावरण की ५ कर्म-प्रकृतियाँ, जैसे--(१) मतिज्ञानावरण,
(२) श्रुतंज्ञानावरण, (३) अवधिज्ञानावरण, (४) मन:पर्यायज्ञानावरण
और (५) केवलज्ञानावरण। २. दर्शनावरण की ९ प्रकृतियाँ, जैसे-(१) चक्षुर्दर्शनावरण,
(२) अचक्षुर्दर्शनावरण, (३) अवधिदर्शनावरण, (४) केवलदर्शनावरण,
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