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________________ १०२ कर्मग्रन्थभाग-२ करनेवाला होता है वह चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में सबसे पहले अनन्तानुबन्धि-चतुष्क और दर्शन-त्रिक इन सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय करता है। और इसके बाद आठवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क तथा प्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क इन आठ कर्म-प्रकृतियों के क्षय का प्रारम्भ करता है तथा ये आठ प्रकृतियाँ पूर्ण क्षीण नहीं होने पातीं कि बीच में ही नौवें गुणस्थान के प्रारम्भ में १६ प्रकृतियों का क्षय कर डालता है। वे प्रकृतियाँ ये हैं-स्त्यानद्धि-त्रिक ३, नरक-द्विक ५, तिर्यग्-द्विक ७, जाति-चतुष्क ११, आतप १२, उद्योत १३, स्थावर १४, सूक्ष्म १५ और साधारण १६, इसके अनन्तर वह अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क का तथा प्रत्याख्यानावरण-कषाय-चतुष्क का शेष भाग, जो कि क्षय होने से अभी तक बचा हुआ है, उसका क्षय करता है। और अनन्तर नौवें गुणस्थान के अन्त में क्रम से नपुंसकवेद का, स्त्रीवेद का, हास्यादि-षट्क का, पुरुषवेद का, संज्वलन क्रोध का, संज्वलन मान का और संज्वलन माया का क्षय करता है तथा अन्त में संज्वलन लोभ का क्षय वह दसवें गुणस्थान में करता है।।१२।। सयोगिकेवलिगुणस्थान जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त किया है और जो योग के सहित हैं वे सयोगि-केवली कहलाते हैं तथा उनका स्वरूप विशेष सयोगिकेवलिगुणस्थान कहलाता है। आत्म-वीर्य, शक्ति, उत्साह, पराक्रम और योग इन सब शब्दों का मतलब एक ही है। मन, वचन और काय इन तीन साधनों से योग की प्रवृत्ति होती है अतएव योग के भी अपने साधन के अनुसार तीन भेद होते हैं। जैसे-१. मनोयोग, २. वचनयोग और ३. काययोग। केवलिभगवान् को मनोयोग का उपयोग किसी को मन से उत्तर देने में करना पड़ता है। जिस समय कोई मन:पर्यायज्ञानी अथवा अनुत्तरविमानवासी देव, भगवान् को शब्द द्वारा न पूछकर मन से ही पूछता है। उस समय केवलिभगवान् उसके प्रश्न का उत्तर मन से ही देते हैं। प्रश्न करनेवाला मन:पर्यायज्ञानी या अनुत्तरविमानवासी देव, भगवान् के द्वारा उत्तर देने के लिये संगठित किये गये मनोद्रव्यों को, अपने मनः पर्यायज्ञान से अथवा अवधिज्ञान से प्रत्यक्ष देख लेता है। और देखकर मनोद्रव्यों की रचना के आधार से अपने प्रश्न का उत्तर देने के लिये संगठित किये गये मनोद्रव्यों को, अपने मन:पर्यायज्ञान से अथवा अवधिज्ञान से प्रत्यक्ष देख लेता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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