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________________ प्रस्तावना xxxvii ३४। जो बात प्राचीन में कुछ विस्तार से कही है उसे इसमें परिमित शब्दों के द्वारा कह दिया है। यद्यपि व्यवहार में प्राचीन कर्मग्रन्थ का नाम, 'कर्मस्तव' है, पर उसके आरम्भ की गाथा से स्पष्ट जान पड़ता है कि उसका असली नाम, 'बन्धोदयसत्त्व-युक्त स्तव' है। यथा नमिऊण जिणवरिंदे तिहुयणवरनाणदंसणपईवे । बंधुदयसंतजुत्त वोच्छामि थयं निसामेह ।।१।। प्राचीन के आधार से बनाये गये इस कर्मग्रन्थ का ‘कर्मस्तव' नाम कर्ता ने इस ग्रन्थ के किसी भाग में उल्लिखित नहीं किया है, तथापि इसका ‘कर्मस्तव' नाम होने में कोई संदेह नहीं है। क्योंकि इसी ग्रन्थ के कर्ता श्री देवेन्द्रसूरि ने अपनी रचना तीसरे कर्मग्रन्थ के अन्त में 'नेयं कम्मत्थयं सोउं' इस अंश से उस नाम का कथन कर ही दिया है। 'स्तव' शब्द के पूर्व में ‘बन्धोदयसत्त्व' या 'कर्म' कोई भी शब्द रखा जाय, मतलब एक ही है। परन्तु इस जगह इसकी चर्चा, केवल इसीलिए की गई है कि प्राचीन दूसरे कर्मग्रन्थ के और गोम्मटसार के दूसरे प्रकरण के नाम में कुछ भी अन्तर नहीं है। यह नाम की एकता, श्वेताम्बर-दिगम्बर आचार्यों की ग्रन्थरचना-विषयक पारस्परिक अनुकरण का पूरा प्रमाण है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि नाम सर्वथा समान होने पर भी गोम्मटसार में तो 'स्तव' शब्द की व्याख्या की गई है वह बिल्कुल विलक्षण है, पर प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ में तथा उसकी टीका में 'स्तव' शब्द के उस विलक्षण अर्थ की कुछ भी सूचना नहीं है। इससे यह जान पड़ता है कि यदि गोम्मटसार के बन्धोदयसत्त्व-युक्त नाम का आश्रय लेकर प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ का वह नाम रखा गया होता तो उसका विलक्षण अर्थ भी इसमें स्थान पाता। इससे यह कहना पड़ता है कि प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना, गोम्मटसार से पूर्व हुई होगी। गोम्मटसार की रचना का समय, विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी बतलाया जाता है। प्राचीन द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना का समय तथा उसके कर्ता का नाम आदि ज्ञात नहीं। परन्तु उसकी टीका करने वाले श्री गोविन्दाचार्य हैं जो श्री देवनाग के शिष्य थे। श्री गोविन्दाचार्य का समय भी सन्देह की तह में छिपा है पर उनकी बनाई हुई टीका की प्रति-जो वि.सं. १२८८ में ताड़पत्र पर लिखी हुई मिलती है। इससे यह निश्चित है कि उनका समय, वि.सं. १२८८ से पहले होना चाहिए। यदि अनुमान से टीकाकार का समय १२ वीं शताब्दी माना जाय तो भी यह अनुमान करने में कोई आपत्ति नहीं कि मूल द्वितीय कर्मग्रन्थ की रचना उससे सौ-दो सौ वर्ष पहले ही होनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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