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________________ ७६ कर्मग्रन्थभाग-१ अब जिस कर्म के जो स्थूल बन्ध-हेतु हैं उनको कहेंगे, इस गाथा में ज्ञानावरण और दर्शनावरण के बन्ध के कारण कहते हैं। पडिणीयत्तण निन्हव उवधायपओसअंतराएणं । अच्चासायणयाए आवरणदुर्ग जिओ जयइ ।। ५४।। (पडिणीयत्तण) प्रत्यनीकत्व अनिष्ठ आचरण, (निन्हव) अपलाप, (अवघाय) उपघात-विनाश, (पओस) प्रद्वेष, (अन्तराएणं). अन्तराय और (अच्चासायणयाए) अतिआशातना, इनके द्वारा (जिओ) जीव, (आवरणदुर्ग) आवरण-द्विक का ज्ञानावरणीयकर्म और दर्शनावरणीयकर्म का (जयइ) उपार्जन करता है ॥५४॥ भावार्थ-कर्म के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये चार मुख्य हेतु हैं, जिनको कि चौथे कर्म-ग्रन्थ में विस्तार से कहेंगे, यहाँ संक्षेप से साधारण हेतुओं को कहते हैं, ज्ञानावरणीयकर्म और दर्शनावरणीयकर्म के बन्ध के साधारण हेतु ये हैं१. ज्ञानवान व्यक्तियों के प्रतिकूल आचरण करना। २. अमुक के पास पढ़कर भी मैंने इनसे नहीं पढ़ा है अथवा अमुक विषय को जानता हुआ भी मैं इस विषय को नहीं जानता, इस प्रकार अपलाप करना। ३. ज्ञानियों का तथा ज्ञान के साधन-पुस्तक, विद्या मन्दिर आदि का, शस्त्र, अग्नि आदि से सर्वथा नाश करना। ४. ज्ञानियों तथा ज्ञान के साधनों पर प्रेम न करना उन पर अरुचि रखना। विद्यार्थियों के विद्याभ्यास में विघ्न पहुँचाना, जैसे कि भोजन, वस्त्र, स्थान आदि का उनको लाभ होता हो, तो उसे न होने देना, विद्याभ्यास से छुड़ाकर उनसे अन्य काम करवाना इत्यादि। ६. ज्ञानियों की अत्यन्त आशातना करना; जैसे कि ये नीच कुल के हैं, इनके माँ-बाप का पता नहीं है, इस प्रकार मर्मच्छेदी बातों को लोक में प्रकाशित करना, ज्ञानियों को प्राणान्त कष्ट हो इस प्रकार के जाल रचना इत्यादि। इसी प्रकार निषिद्ध देश (स्मशान आदि), निषिद्ध काल (प्रतिपद् तिथि, दिन-रात का सन्धिकाल आदि) में अभ्यास करना पढ़ाने वाले गुरु का विनय न करना, ऊँगली में थूक लगाकर पुस्तकों के पत्रों को उलटना, ज्ञान के साधन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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