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________________ कर्मग्रन्थभाग- १ ३. अपर्याप्त नाम - जिस कर्म के उदय से जीव, स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण न करे, वह अपर्याप्त नामकर्म है। अपर्याप्त जीवों के दो भेद हैं- लब्ध्यपर्याप्त और करणापर्याप्त। ७० जो जीव अपनी पर्याप्ति पूर्ण किये बिना ही मरते हैं, वे लब्ध्यपर्याप्त कहलाते हैं। आहार, शरीर तथा इन्द्रिय इन तीन पर्याप्तियों को जिन्होंने अब तक पूर्ण नहीं किया किन्तु आगे पूर्ण करने वाले हों वे करणापर्याप्त कहलाते हैं। । इस विषय में आगम इस प्रकार कहता है लब्ध्यपर्याप्त जीव भी आहार - शरीर - इन्द्रिय इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते हैं, पहले नहीं। क्योंकि आगामी भव की आयु बाँधकर ही सब प्राणी मरा करते हैं और आयु का बन्ध उन्हीं जीवों को होता है जिन्होंने आहार, शरीर और इन्द्रिय, ये तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण कर ली हैं। ४. साधारण नाम — जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक ही शरीर हो - अर्थात् अनन्त जीव एक शरीर के स्वामी बनें वह साधारण नाम कर्म है। ५. अस्थिर नाम - जिस कर्म के उदय से कान, भौंह, जीभ आदि अवयव अस्थिर - अर्थात् चपल होते हैं, वह अस्थिर नामकर्म है। ६. अशुभ नाम - जिस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव - पैर आदि अशुभ होते हैं वह अशुभ नामकर्म है। पैर से स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, यह अशुभत्व है। दुर्भग नाम - जिस कर्म के उदय से उपकार करने वाला भी अप्रिय लगे वह दुर्भग नामकर्म है। देवदत्त निरन्तर दूसरों की भलाई किया करता है, तो भी उसे कोई नहीं चाहता, ऐसी दशा में समझना चाहिये कि देवदत्त को दुर्भग नामकर्म का उदय है। ८. दुःस्वर नाम - जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश – सुनने में अप्रिय लगे, वह दु:स्वर नामकर्म है। - ९. अनादेय नाम — जिस कर्म के उदय से जीव का वचन, हुए भी अनादरणीय समझा जाता है, वह अनादेय नामकर्म है। १०. अयशः कीर्ति नाम - जिस कर्म के उदय से दुनिया में अपयश और अपकीर्ति फैले, वह अयश: कीर्ति नाम है। Jain Education International युक्त होते For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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