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________________ कर्मग्रन्थभाग-१ अङ्गुलियों की रेखाओं तथा पर्यों आदि को अङ्गोपाङ्ग कहते हैं। १. औदारिक शरीर के आकार में परिणत पुद्गलों से अङ्गोपाङ्गरूप अवयव, जिस कर्म के उदय से बनते हैं, उसे औदारिक अङ्गोपाङ्ग नामकर्म कहते हैं। २. जिस कर्म के उदय से, वैक्रियशरीररूप से परिणत पुद्गलों से अङ्गोपाङ्गरूप अवयव बनते हैं, वह वैक्रिय अङ्गोपाङ्ग नामकर्म है। ३. जिस कर्म के उदय से, आहारक शरीर रूप से परिणत पुद्गलों से अङ्गोपाङ्गरूप अवयव बनते हैं, वह आहारक अङ्गोपाङ्ग नामकर्म है। 'बन्धन नामकर्म के पाँच भेद' उरलाइपुग्गलाणं निबद्धबज्झतयाण संबंधं । जं कुणइ जउसमं तं' उरलाईबंधणं नेयं ।। ३५।। ___ (जं) जो कर्म (जउसमं) जतु-लाख के समान (निबद्ध बज्झतयाण) पहले बँधे हुये तथा वर्तमान में बँधने वाले (उरलाइपुग्गलाणं) औदारिक आदि शरीर के पुद्गलों का, आपस में (सम्बन्धं) सम्बन्ध (कुणइ) कराता है—परस्पर मिलाता है (तं) उस कर्म का (उरलाइबंधणं) औदारिक आदि बन्धन-नामकर्म (नेयं) समझना चाहिये ।।३५।। भावार्थ-जिस प्रकार लाख, गोंद आदि चिकने पदार्थों से दो चीजें आपस में जोड़ दी जाती हैं उसी प्रकार बन्धन-नामकर्म, शरीरनाम के बल से प्रथम ग्रहण किये हुए शरीर-पुद्गलों के साथ, वर्तमान समय में जिनका ग्रहण हो रहा है ऐसे शरीर पुद्गलों को बाँध देता है-जोड़ देता है। यदि बन्धन नामकर्म न होता तो शरीराकार-परिणतपुद्गलों में उसी प्रकार की अस्थिरता हो जाती, जैसी कि वायु-प्रेरित, कुण्ड-स्थित सक्तु (सत्तु) में होती है। जो शरीर नये पैदा होते हैं, उनके प्रारम्भ काल में सर्व-बन्ध होता है, बाद, वे शरीर जब तक धारण किये जाते हैं, देश-बन्ध हुआ करता है। अर्थात्, जो शरीर नवीन नहीं उत्पन्न होते, उनमें जब तक कि वे रहते हैं, देश-बन्ध ही हुआ करता है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीन शरीरों में, उत्पत्ति के समय सर्व-बन्ध और बाद देश-बन्ध होता है। १. 'बंधम मुरलाई तणुनामा' इत्यपि पाठान्तरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001894
Book TitleKarmagrantha Part 1 2 3 Karmavipaka Karmastav Bandhswamitva
Original Sutra AuthorDevendrasuri
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2008
Total Pages346
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size15 MB
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