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________________ सप्तमोऽङ्कः १८७ नलः- (ससम्भ्रमं बाहौ गृहीत्वा) येनाकस्मात् कठिनमनसा भीषणायां करालव्यालानां त्वं वनभुवि हतेनातिथेयीकृतासि। निर्लज्जात्मा विकलकरुणो विश्वविश्वस्तघाती पत्याभासः सरलहृदये! देवि! सोऽयं नलोऽस्मि।।८।। (दमयन्ती प्रत्यभिज्ञाय परिरभ्य चोच्चैःस्वरं रोदिति। कलहंसादय: सर्वे प्रणम्य रुदन्ति) न प्रेम 'रचितं चित्ते न चाचारः सतां स्मृतः। त्यजता त्वां वने देवि! मया' दारुणमाहितम्।।९।। यस्तवापि प्रेम्णा न प्रसाद्यते, सोऽहं सर्वथा खलु खलप्रकृतिरस्मि। न प्रेम नौषधं नाज्ञा न सेवा न गुणो न धीः। न कुलं न बलं न श्रीर्दुर्जनस्य प्रशान्तये।।१०।। नल- (वेगपूर्वक दोनों भुजाओं को पकड़ करके) हे मुग्धे! देवि! जिस कठोर हृदय नीच के द्वारा जंगल में हिंसक जीवों की अतिथि सेवा के लिये तुम छोड़ दी गई, वह लम्पट, दया रहित समस्त विश्वास को तोड़ने वाला पति रूपी छायापुरुष मैं नल हूँ।।८।। (दमयन्ती पहचान कर आलिङ्गन करके जोर से रोती है। कलहंसादि सभी प्रणाम करके रोते हैं) हे देवि! तुमको वन में छोड़ते हुए निष्ठुरता को सम्पन्न करने वाले मैंने न तो हृदय में स्नेह का सृजन किया और न ही सज्जनों के आचरण का स्मरण किया।।९।। जो तुम्हारे प्रेम (स्नेह) से भी प्रसन्न नहीं होता है, वह मैं निश्चय ही नितान्त दुष्ट प्रकृति वाला हूँ। (क्योंकि) दुर्जन को शान्त करने के लिए न(तो) स्नेह, न औषधि, न आज्ञा, न सेवा, न गुण, न बुद्धि, न वंश, न सामर्थ्य (और) न लक्ष्मी (ही) समर्थ है।।१०।। १. ख. ग. विहि.। २. ख. ग. महा.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001890
Book TitleNalvilasnatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandrasuri
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1996
Total Pages242
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size12 MB
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