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सप्तमोऽङ्कः
१७९ नल:- वैदेशिकत्वादनभिज्ञोऽस्मिवृत्तान्तस्य, तत्कथय किमिदमतितरा करुणम्?
ब्राह्मणः- महाभाग! किं कथयामि मन्दभाग्यः? अकाण्डक्रोधसंरुद्धचेतसा वेधसा सर्वसंहारः प्रारब्धोऽद्य विदर्भपतिकुटुम्बस्य।
राजा- कथमिव? ब्राह्मणः प्राणेभ्योऽपि प्रिया विदर्भभतुरेकैव पुत्री।
नलः- (स्वगतम्) तत् किं देवी विपन्ना? अतः परमपि विधिर्विकारं किं किमपि दर्शयिष्यति? (प्रकाशम्) तत् किं तस्याः?
ब्राह्मण:- अद्य प्रातरेकेन केनापि वैदेशिकेन राजकुले तत् किमपि प्रकाशितं येन सा चितामधिरोढुमध्यवसिता। पश्य पुरः पुरस्यादवीयसि देशे निकषा सहकारतरुखण्डं तस्याश्चितिर्वर्तते। अपरास्वप्येतासु तिसृषु तस्या एव परिकरलोकः प्रवेक्ष्यति। तदनुजानीहि मां प्राणात्ययसमयप्रवर्त्यमानदानप्रतिमहणार्थमुपगन्तुम्।
नल- परदेशी होने के कारण इस घटना से अनभिज्ञ हूँ, अत: कहिये कि यह अत्यन्त करुण विलाप क्यों (हो रहा है)
ब्राह्मण- मान्यवर! मन्दभाग्य मैं क्या कहूँ। अनवसर में क्रोध के कारण अवरुद्ध हृदय वाले विधाता ने आज विदर्भनरेश के सम्बन्धी का सर्वनाश उपस्थित कर दिया
राजा- वह कैसे? ब्राह्मण- प्राण से भी प्यारी विदर्भपति भीमरथ की एक ही पुत्री है।
नल- (मन ही मन) तो क्या देवी दमयन्ती विपत्ति में पड़ी है? अत: इसके पश्चात् विधि का विक्षोभ क्या-क्या दिखायेगा? (प्रकट में) तो उसको क्या हुआ?
ब्राह्मण- आज प्रात:काल कोई एक परदेशी ने राज परिवार में ऐसा कुछ कहा जिससे वह (दमयन्ती) चिता में जाने का निश्चय कर ली। देखो, सामने नगर के समीपवर्ती भाग में आम्रवृक्ष के समीप उसकी चिता है। तीन और भी चिता है जिसमें उसके परिजन प्रवेश करेंगे। इसलिए प्राणनाश के समय दान में दिये जाने वाले धन को लेने के लिये जाने की आज्ञा दें।
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