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________________ ४० ] श्री धन्यकुमार चरित्र हाय ! जो पहले मेरा नौकर था आज पापके उदयसे मेरा पुत्र उसीका नौकर हुआ, जो बुद्धिमान हैं उन्हें जहां पूर्व अवस्था में नाना तरहके ऐश आराम किये गये हैं वहीं फिर नौकर की तरह रहना उचित नहीं है ठीक वही हालत अभी मेरो है । धन प्रभुत्व सब तो नष्ट हो चूका और दरिद्रता सामने खड़ी हैं । इसलिये कहीं अन्यत्र ही जाना चाहिये । फिर वहां दुःख हों अथवा सुख ! क्योंकि पाप और पुण्यका फल बिना भोगे नहीं छूटता है । यही विचार कर अकृतपुण्यकी माताने चनेका पाथेय बनाया और पुत्रको साथ लेकर कहीं अन्यत्र जानेके विचार से प्रयाण यात्रा कर दी । सो चलती२ अवन्ती देश के अन्तर्गत सीसवाक गाम में पहुंची और पुत्रका मार्गश्रम दूर करने के 'लिये ग्रामके स्वामीके गृहाङ्गण में बैठ गई । स्वामीका नाम था बलभद्र । उसे देखकर बलभद्रने पूछा- माता तुम कहांसे आई हो ? और यहांसे किस लिये कहां जाओगी ! इतना पूछने पर भी बिचारी लज्जाके मारे कुछ उत्तर न दे सको तब बलभद्रने फिर आग्रहके साथ पूछा- तब बोली भाई ! पापके उदयसे जीवोंको बहुधा दुःख ही उठाने पड़ते है । मैं दैवको मारी मगधदेश से यहां आ निकली हूँ और वहीं जाऊंगी जहां मेरी जीविका हो सकेगी । यह सुनकर बलभद्र बोला- यदि तेरी यह इच्छा है तो यहीं रह और मेरे घरमें भोजन बनाया कर । और तेरा पुत्र मेरे गायके बच्चों को बनमें चरा लाया करेगा । मैं तुम्हारे लिये उचित वस्त्र भोजनका प्रबन्ध कर दूंगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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