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________________ तृतीय अधिकार [ ३७ शीत उष्ण क्षुधा तृषादिकी भीषण यातनाओंका उस ब्रह्मचारी के जीवने निरन्तर अनुभव किया। वाणीमें भी उतनी शक्ति नहीं है जो नारकीय पीडाका वर्णन कर सके। उस पापीने तेतीस सागर पर्यंत वहीं अनेक तरहके दुःख भोगे, जहां दु:ख समुद्रमें डूबे हुये नारकियोंकी निमिष मात्र “भी सुख नहीं होता है । ___जब उसको नरक स्थिति पूर्ण हुई तब वहांसे निकल कर पापोदयसे स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य हुआ वहां भी उसने बहुत दिनों तक जीवोंके भक्षणसे फिर भी सप्त नरकका पाप उत्पन्न किया । सो आयु पूर्ण होते ही पीछा उसी नरकमें गया जिसके दुःखोंका वर्णन ऊपर किया जा चूका है। वहां पहलेको तरह दुःखानुभव कर निकला और भव समुद्र में-सब दुःखोंके कारण त्रस तथा स्थावर योनियोंमें चिरकाल भ्रमण कर यही अकृतपुण्य हुआ है। देखो ! इस अकृत पुण्यने पूर्व जन्ममें मायाचारके द्वारा पाप उपार्जन किया था उसीके भीषण फलसे इसे दारूण नरक यातना भोगनी पड़ी है। यही विचार कर बुद्धिमानों को पाप कर्मसे आत्माकी रक्षा करनी चाहिये और व्रत संयमादिक ग्रहण करने चाहिये जिससे सुख मिल सके यही कहनेका सार है । धर्म और अधर्मके निरूपण करनेवाले जिनेन्द्र और उसके फलोको प्राप्त हुये निरूपम सिद्ध भगवान, पावन धर्मका उपदेश देनेवाले आचार्य और उपाध्याय तथा साधु ये सब मिलकर मुझे अपने२ गुणोंका लाभ करावें क्योंकि त्रिभुवनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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