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________________ थी धन्यकुमार चरित्र उसमें जैसा लिखा था उसी अनुसार निधियोंके स्थापनादि को ठीक ठीक समझकर राजाके पास गया और उनसे युक्ति पूर्वक गृहके लिये अभ्यर्थना की। तथा अपने शुभौदयसे आज्ञा मिल जानेपर घरके भीतर गया और वहां निधियोंको देखकर आनन्दित हुआ ।।१२२-१२३।। बाद वह उत्कृष्ट निधियोंको अपने अधिकारमें करके उनके द्वारा होनेवाले अपरिमित धनका ब्यवहार मनोमिलपित फलके देनेवाली देव गुरु तथा शास्त्रकी महापूजामें, सत्पात्रोंके लिये पुण्य सम्पादनके कारण दानके देने में, दीन तथा अनाथोंके लिये उनकी इच्छानुसार दया दान करने में तथा प्रचुर विभूतिसे जिन धर्मियोंका उपकार करने लगा। इसी तरह धन्यकुमार थोड़े दिनोंमें राज्यमान्य होकर त्रिभुवन विस्तृत सुयशके द्वारा उत्पन्न होनेवाले नाना प्रकार भोगोंको भोगने लगा। धन्यकुमार अपने कुटुम्बी तथा और और लोगोंको भी बहुत प्रिय था । वह अपने शुभाचरण से धर्म सेवन करता हुआ सुखरूप पीयूष-समुद्रोंमें निर्मग्न होकर कौतुकसे बीते हुये समयको न जानकर सुखपूर्वक रहने लगा ॥१२४-१२८।। अहो ! धन्यकुमार अपने पूर्वोपार्जित पुण्य कर्मको उदयसे सर्वत्र आश्चर्य जनक भोग तथा सुखकी सम्पादन करनेवाली उत्तम संपत्ति-नव निधियों को प्राप्त होकर मनुष्य तथा राजादिसे मान्य सुखका सदैव उपयोग करता है, ऐसा समझ कर जो पुरूष सुख के अभिलाषी हैं उन्हें चाहिये कि वे सदैव अपने पवित्र आचरणोंसे केवल एक पुण्यका उपार्जन करें ।। १२९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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