SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२] श्री धन्यकुमार चरित्र कितने आश्चर्यकी बात है जो आज ही तो पिताजीने व्यापार करनेके लिये सो दीनारे दी थी और पहले ही दिन उन्हें खोकर चला आया तो भी हमारी माता उत्सव कर रही है और हम लोग बहुत ही धन कमाकर लाते हैं फिर भी हमारे सामने तक न देखकर उल्टी उदासीन रहती है। अस्तु ! इसमें इसका क्या दोष ? किन्तु दोष है हमारे पूर्वोपार्जित कर्मोंका । पुत्रोंके वचनोंको सुनकर प्रभावतीने उन्हें हृदय में रख लिये और फिर सब पुत्रोंके पहले हो धन्यकु मारको भोजन कराकर स्वयं भो भोजन कर लिया । पश्चात् एक बड़े भारी काष्टके भाजनमें जल भरकर प्रीतिपूर्वक अपने ही हाथोसे खाटके ही पायौको धोने लगी। धोने के साथ ही पायोंका कुछ भाग दूर जा गिरा, और शेष भागसे कुमारके प्रचुर पुण्योदयसे देदीप्यमान अनेक रत्न गिरने लगे और उसो में एक व्यवस्था पत्र भी निकला। तो कदाचित कोई कहे कि ये खाटके पाये किसके हैं ? यह पत्र किसने लिखा ? तथा इसमें पत्र कैसे आया ? इन सब प्रश्नो का उत्तर नीचे लिखा जाता है पहले इसी नगरीमें पुण्यशाली तथा महाधनी वसुमित्र नाम राजश्रेष्ठि हो गया है. सो प्रचुर शुभोदयसे उसके यहां समस्त भोगोपभोग सम्पदाको देनेवालो नवनिधियें पैदा हुई थी। एक दिन वसुमित्रने उपवनमें आये हुये अवधिज्ञानी मुनिसे जाकर पूछा विभो ! आगे ऐसा कौन पुण्यात्मा नररत्न उत्पन्न होनेवाला है जो इन नव निधियोंका स्वामी होगा ? मुनिराजने अवधिज्ञानके बलसे कहा "महाराज ! अवनिपाल की उत्तम राजधानी में धनपाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001883
Book TitleDhanyakumar Charitra
Original Sutra AuthorBhattarak Sakalkirti
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages646
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy