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योगीन्दु-विरचितः
अप्प-सरूवहँ (-सरूवइ ? ) जो रमइ छंडिवि सहु ववहारु । सो सम्माइट्ठी हवइ लहु पावईं भवपारु ॥ ८९ ॥ [ आत्मस्वरूपे यः रमते त्यक्त्वा सर्वं व्यवहारम् ।
स सम्यग्दृष्टिः भवति लघु प्राप्नोति भवपारम् || ] पाठान्तर - १ ) अपझ - जइ. २) अपझ-छंडवि. ३) अपझ - पावहु, ब- पावहि.
अर्थ — जो सर्व व्यवहारको छोड़कर आत्मस्वरूपमें रमण करता है, वह सम्यग्दृष्टि जीव है, और वह शीघ्र ही संसारसे पार हो जाता है ॥ ८९॥
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जो सम्मत्त - पहाण बुहु सो तइलोय - पहाणु ।
केवल - णाण विलह लहइ सासय सुक्ख णिहाणु ॥ ९० ॥ [ यः सम्यक्त्वप्रधानः बुधः स त्रिलोकप्रधानः ।
केवलज्ञानमपि लघु लभते शाश्वत सौख्यनिधानम् ॥ ]
पाठान्तर - १ ) ब - सासर सुबल होइ सुबल होइ ? ). २ ) अपझ ९१
अर्थ - जिसके सम्यक्त्वका प्राधान्य है वही पण्डित है और वही त्रिलोक में प्रधान है । वह जीव शाश्वत सुखके निधान केवलज्ञानको भी शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है ॥ ९० ॥
[ दो० ८९
अरु अमरु गुण-गण- णिलउ जहि अप्पा थिरु ठाई । सो कम्मेहि ण वंधियउं संचिय- पुर्वं विलाइ ॥ ९१ ॥ [ अजरः अमरः गुणगणानिलयः यत्र आत्मा स्थिरः तिष्ठति । स कर्मभिः न बद्धः संचितपूर्व विलीयते ॥ ]
पाठान्तर - १) ब - थिर होइ, झ-थिर थाइ २) अ - वि बंधियउ, झ-कम्मर्हिण विबंधियउ, ब-ण परिणमइ ३) ब - संचउ पुग्व. ४) अपझ - ९०.
अर्थ -- जहाँ अजर अमर तथा गुणोंकी आगारभूत आत्मा स्थिर हो जाती है, वहाँ जीव कर्मोसे बद्ध नहीं होता, और वहाँ पूर्वमें संचित किये हुए कमौका ही नाश होता है ॥ ९१ ॥
जह सलिलेण ण लिप्पियई कमलणि-पत्त कया वि' । तह कम्मेहिं ण लिप्पियई जइ रई अप्प - सहावि ॥ ९२ ॥ [ यथा सलिलेन न लिप्यते कमलिनीपत्रं कदा अपि । तथा कर्मभिः न लिप्यते यदि रतिः आत्मस्वभावे ॥ ] पाठान्तर - १ ) अप-लिप्पयइ, झ - लिप्पइ. ४) अप-लिप्पय, झ-लिप्पइ. ५) अपझ-जह रहइ. अर्थ - जिस तरह कमलिनीका पत्र कभी भी स्वभावमें रति हो, तो जीव कर्मोंसे लिप्त नहीं होता ॥ ९२ ॥
२) अपझ कहा वि.
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३) अपझ - कम्मेण,
ब-जह.
जलसे लिप्त नहीं होता, उसी तरह यदि आत्म
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