SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मप्रकाशः ३१७ मनोवचनकायव्यापारभावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मख्यातिपूजालाभदृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादिसर्वविभावपरिणामरहितशून्योऽहं, जगत्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयनयेन । तथा सर्वेऽपि जीवाः, इति निरन्तरं भावना कर्तव्येति ॥ ग्रन्थसंख्या ॥ ४००० ॥ पंडवरामहि गरवरहिं पुजिउ भत्तिभरेण । सिरिसासणु जिणभासियउ गंदउ सुक्खसएहिं ॥१॥ [ पाण्डवरामैः नरवरैः पूजितं भक्तिभरेण । श्रीशासनं जिनभाषितं नन्दतु सुखशतैः ॥ १ ॥] इति श्रीब्रह्मदेवविरचिता परमात्मप्रकाशवृत्तिः समाप्ता किया, उसपर श्रीब्रह्मदेवने संस्कृतटीका की । श्रीयोगीन्द्रदेवने प्रभाकरभट्टको समझानेके लिये तीनसौ पैंतालीस दोहे रचे, उसपर श्री ब्रह्मदेवने संस्कृतटीका पाँच हजार चार श्लोक प्रमाण की। और उस पर दौलतरामने भाषावचनिकाके श्लोक अडसठिसौ नब्बे संख्याप्रमाण बनाये । इस प्रकार श्री योगींद्राचार्यविरचित परमात्मप्रकाशकी पं० दौलतरामकृत भाषाटीका समाप्त हुई । 8 समाप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy