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________________ -दोहा २१४] परमात्मप्रकाशः ३१५ मनसि । केषाम् । मुणिवराणं मुनिपुङ्गवानाम् । न केवलं योगो जयतु । केवलो को वि योहो केवलज्ञानाभिधानः कोऽप्यपूर्वो बोधः । कथंभूतः। सिवसरूवो शिवशब्दवाच्यं यदनन्तसुखं तत्स्वरूपः । पुनरपि कथंभूतः । दुल्लहो जो हु लोए दुर्लभो दुष्पाप्यः यः स्फुटम् । क । लोके । केषां दुर्लभः । विसयसुहरयाणं विषयसुखातीतपरमात्मभावनोत्पन्नपरमानन्दैकरूपसुखास्वादरहितखेन पञ्चेन्द्रियविषयासक्तानामिति भावार्थः ।। २१४ ॥ इति 'परु जाणंतु वि परममुणि परसंसग्गु चयंति' इत्यायेकाशीतिसूत्रपर्यन्तं सामान्यभेदभावना, तदनन्तरं 'परमसमाहि' इत्यादि चतुर्विंशतिसूत्रपर्यन्तं महास्थलं, तदनन्तरं वृत्तद्वयं चेति सर्वसमुदायेन सप्ताधिकसूत्रशतेन द्वितीयमहाधिकारे चूलिका गतेति ॥ एवमत्र परमास्मप्रकाशाभिधानग्रन्थेन प्रथमस्तावत् 'जे जाया झाणग्गियए' इत्यादि त्रयोविंशत्यधिकसूत्रशतेन प्रक्षेपकत्रयसहितेन प्रथममहाधिकारो गतः। तदनन्तरं चतुर्दशाधिकशतद्वयेन प्रक्षेपकपञ्चकसहितेन द्वितीयोऽपि महाधिकारो गतः। एवं पञ्चाधिकचत्वारिंशत्सहितशतत्रयप्रमितश्रीयोगीन्द्रदेव विरचितदोहकसूत्राणां विवरणभूता परमात्मप्रकाशवृत्तिः समाप्ता ॥ वीतराग निर्विकल्पसमाधिरूप भास रहा है, [मोक्षदः] और मोक्षका देनेवाला है । [केवल: कोऽपि बोधः] जिसका केवलज्ञान स्वभाव है, ऐसी अपूर्व ज्ञानज्योति [शिवस्वरूपः] सदा कल्याणरूप है। [लोके] लोकमें [विषयसुखरतानां] शिवस्वरूप अनन्त परमात्माकी भावनासे उत्पन्न जो परमानन्द अतीन्द्रियसुख उससे विपरीत जो पाँच इन्द्रियोंके विषय उनमें जो आसक्त हैं, उनको [यः हि] जो परमात्मतत्व है वह [दुर्लभः] महा दुर्लभ है ॥ भावार्थ-इस लोकमें विषयी जीव जिसको नहीं पा सकते, ऐसा वह परमात्मतत्त्व जयवंत होवे ॥२१४॥ इस प्रकार परमात्मप्रकाश ग्रन्थमें पहले 'जे जाया झाणग्गियए' इत्यादि एकसौ तेईस दोहे तीन प्रक्षेपकों सहित ऐसे १२६ दोहोंमें पहला अधिकार समाप्त हुआ । एकसौ चौदह दोहे तथा ५ प्रक्षेपक सहित ११९ दोहोंमें दूसरा महाधिकार कहा । और ‘परु जाणंतु वि' इत्यादि एकसौ सात दोहोंमें तीसरा महाधिकार कहा । प्रक्षेपक और अंतके दो छंद उन सहित तीनसौ पैंतालीस दोहोंमें परमात्मप्रकाशका व्याख्यान ब्रह्मदेवकृत टीका सहित समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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