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________________ ३१० योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा २०९परमात्मनो भक्तिपराः। पुनरपि किं कुर्वन्ति ये। विसय ण जे वि रमंति निविषयपरमात्मतत्त्वानुभूतिसमुत्पन्नातीन्द्रियपरमानन्दसुखरसास्वादतृप्ताः सन्तः सुलभान्मनोहरानपि विषयान्न रमन्त इत्यभिप्रायः ॥ २०८॥ अथ णाण-वियक्खणु सुद्ध-मणु जो जणु एहउ कोइ । सो परमप्प-पयासयहँ जोग्गु भणंति जि जोइ ॥ २०९॥ ज्ञानविचक्षणः शुद्धमना यो जन ईदृशः कश्चिदपि । तं परमात्मप्रकाशकस्य योग्य भणन्ति ये योगिनः ॥ २०९ ॥ भणंति कथयन्ति जि जोइ ये परमयोगिनः । के भणन्ति । जोग्गु योग्यम् । कस्य । परमप्पपयासयह व्यवहारनयेन परमात्मप्रकाशाभिधानशास्त्रस्य निश्चयेन तु परमात्मप्रकाशशब्दवाच्यस्य शुद्धात्मस्वरूपस्य । कं पुरुषं योग्यं भणन्ति । सो तम् । तं कम् । जो जणु एहउ कोइ यो जनः इत्थंभूतः कश्चित् । कयंभूतः । णाणवियक्खणु स्वसंवेदनज्ञानविचक्षणः । पुनरपि कथंभूतः । सुद्धमणु परमात्मानुभूतिविलक्षणरागद्वेषमोहस्वरूपसमस्तविकल्पजालपरिहारेण शुद्धात्मा इत्यभिप्रायः ।। २०९ ॥ एवं चतुर्विशतिसूत्रप्रमितमहास्थलमध्ये परमाराधकपुरुषलक्षणकथनरूपेण सूत्रत्रयेण षष्ठमन्तरस्थलं गतम् ।। अथ शास्त्रफलकथनमुख्यत्वेन सूत्रमेकं तदनन्तरमौद्धत्यपरिहारेण च सूत्रद्वयपर्यन्तं व्याख्यानं भावार्थ-व्यवहारनयकर परमात्मप्रकाश नामका ग्रन्थ और निश्चयनयकर निजशुद्धात्मस्वरूप परमात्मा उसकी भक्तिमें जो तत्पर हैं, वे विषय रहित जो परमात्मतत्त्वकी अनुभूति उससे उपार्जन किया जो अतीन्द्रिय परमानंदसुख उसके रसके आस्वादसे तृप्त हुए विषयोंमें नहीं रमते हैं । जिनको मनोहर विषय सुलभतासे प्राप्त हुए हैं, तो भी वे उनमें नहीं रमते ॥२०८॥ आगे फिर भी यही कथन करते हैं-[यः जनः] जो प्राणी [ज्ञानविचक्षणः] स्वसंवेदनज्ञानकर विचक्षण (बुद्धिमान) हैं, और [शुद्धमनाः] जिसका मन परमात्माकी अनुभूतिसे विपरीत जो राग द्वेष मोहरूप समस्त विकल्प-जाल उनके त्यागसे शुद्ध है, [कश्चिदपि ईदृशः] ऐसा कोई भी सत्पुरुष हो, [तं] उसे [ये योगिनः] जो योगीश्वर हैं, वे [परमात्मप्रकाशस्य योग्यं] परमात्मप्रकाशके आराधने योग्य [भणंति] कहते हैं । भावार्थ-व्यवहारनयकर यह परमात्मप्रकाशनामा द्रव्यसूत्र और निश्चयनयकर शुद्धात्मस्वभावसूत्रके आराधनेको वे ही पुरुष योग्य हैं, जो कि आत्मज्ञानके प्रभावसे महा प्रवीण हैं, और जिनके मिथ्यात्व राग द्वेषादि मलकर रहित शुद्ध भाव हैं, ऐसे पुरुषोंके सिवाय दूसरा कोई भी परमात्मप्रकाशके आराधने योग्य नहीं हैं ॥२०९॥ इस प्रकार चौबीस दोहोंके महास्थलमें आराधक पुरुषके लक्षण तीन दोहोंमें कहकर छट्ठा अंतरस्थल समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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