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________________ - दोहा १६३ ] परमात्मप्रकाशः २७५ घटिकाप्रहरदिवसादिष्वपि भवति तस्य वायुधारणस्य च कार्यं देहारोगत्वलघुत्वादिकं न च मुक्तिरिति । यदि मुक्तिरपि भवति तर्हि वायुधारणाकारकाणामिदानीन्तनपुरुषाणां मोक्षो किं न भवतीति भावार्थः ॥ १६२ ॥ अथ मोह विoिrs aणु मरह तुह सासु- णिसासु । केवल-णाणु विपरिणमह अंबरि जाहँ णिवासु ॥ १६३ ॥ मोहो विलीयते मनो म्रियते त्रुट्यति वासोच्छ्वासः । केवलज्ञानमपि परिणमति अम्बरे येषां निवासः ॥ १६३ ॥ मोहु विज्जि इत्यादि । मोहु मोहो ममत्वादिविकल्पजालं विलिज्जइ विलयं गच्छति मणु मरइ इहलोकपरलोकाशामभृतिविकल्पजालरूपं मनो म्रियते । तुट्टह नश्यति । कोऽसौ । सासुणिसासु अनीहितवृत्त्या नासिकाद्वारं विहाय क्षणमात्रं तालुरन्ध्रेण गच्छति पुनरप्यन्तरं नासिकया कृत्वा निर्गच्छति पुनरपि रन्ध्रेणेत्युच्छ्वासनिःश्वासलक्षणो वायुः । पुनरपि किं भवति । केवलणाणु वि परिणमइ केवलज्ञानमपि परिणमति समुत्पद्यते । येषां किम् | अंबरि जाहं णिवासु रागद्वेषमोहरूपविकल्पजालशून्यं अम्बरे अम्बरशब्दवाच्ये शुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुचरणरूपे निर्विकल्पत्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधौ येषां निवास इति । अयमत्र भावार्थः । अम्बरशब्देन लिए श्रीपंचपरमेष्ठीका ध्यान स्मरण करते हैं, ओंकारादि मंत्रोंका ध्यान करते हैं और प्राणायामका अभ्यासकर मनको रोककर चिद्रूपमें लगाते हैं, जब वह लग गया तब मन और पवन सब स्थिर हो जाते हैं । शुभोपयोगियोंकी दृष्टि एक शुद्धोपयोगपर है, पातंजलिमतकी तरह थोथी वायुधारणा नहीं है । यदि वायुधारणासे ही शक्ति होवे तो वायुधारणाके करनेवालोंको इस दुःषमकालमें मोक्ष क्यों न होवे ? कभी नही होता । मोक्ष तो केवल स्वभावमयी हैं ॥१६२ || आगे फिर भी परमसमाधिका कथन करते हैं - [ येषां ] जिन मुनीश्वरोंका [ अंबरे ] परम समाधिमें [निवासः] निवास है, उनका [ मोहः ] मोह [ विलीयते ] नाशको प्राप्त हो जाता है, [मनः] मन [ म्रियते ] मर जाता है, [ श्वासोच्छ्वासः ] श्वासोच्छ्वास [ त्रुट्यति] रुक जाता है, [ अपि ] और [ केवलज्ञानं ] केवलज्ञान [परिणमति ] उत्पन्न होता है । भावार्थ-दर्शनमोह और चारित्रमोह आदि कल्पना - जाल सब विलय हो जाते हैं, इस लोक परलोक आदिकी वांछा आदि विकल्प जालरूप मन स्थिर हो जाता है, और श्वासोच्छ्वासरूप वायु रुक जाती है, श्वासोच्छ्वास अवांछीकपनेसे नासिकाके द्वारको छोडकर तालुछिद्रमें होकर निकलते हैं, तथा कुछ देर के बाद नासिकासे निकलते हैं । इस प्रकार श्वासोच्छ्वास रूप पवन वश हो जाता है | चाहे जिस द्वार निकालो । केवलज्ञान भी शीघ्र ही उन ध्यानी मुनियोंके उत्पन्न होता है, कि जिन मुनियोंका राग द्वेष मोहरूप विकल्प - जालसे रहित शुद्धात्माका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप निर्विकल्प त्रिगुप्तिमयी परमसमाधिमें निवास है । यहाँ अम्बर नाम आकाशका अर्थ नहीं समझना, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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