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-दोहा ११७ ] परमात्मप्रकाशः
२३५ उक्तं च-" तावदेव मुखो जीवो यावन स्निह्यते कचित् । स्नेहानुविद्धहृदयं दुःखमेव पदे पदे ॥" ॥११५॥ अथ स्नेहदोषं दृष्टान्तेन द्रढयति
जल-सिंचणु पय-णिद्दलणु पुणु पुणु पीलण-दुक्खु । णेहहँ लग्गिवि तिल-णियरु जंति सहंतउ पिक्खु ॥ ११६ ॥ जलसिञ्चनं पादनिर्दलनं पुनः पुनः पीडनदुःखम् ।
स्नेहं लगित्वा तिलनिकरं यन्त्रेण सहमानं पश्य ॥ ११६ ॥ जलसिञ्चनं पादनिर्दलनं पुनः पुनः पीडनदुःखं स्नेहनिमित्तं तिलनिकरं यन्त्रेण सहमानं पश्येति । अत्र वीतरागचिदानन्दैकस्वभावं परमात्मतत्त्वमसेवमाना अजानन्तो वीतरागनिर्विकल्पसमाधिबलेन निश्चलचित्तेनाभावयन्तश्च जीवा मिथ्यामार्ग रोचमानाः पञ्चेन्द्रियविषयासक्ताः सन्तो नरनारकादिगतिषु यन्त्रपीडनक्रकचविदारणशूलारोहणादि नानादुःखं सहन्त इति भावार्थः ॥ ११६॥ उक्तं च
ते चिय धण्णा ते चिय सप्पुरिसा ते जियंतु जिय-लोए । वोद्दह-दहम्मि पडिया तरंति जे चेव लीलाए ॥ ११७ ॥ ते चैव धन्याः ते चैव सत्पुरुषाः ते जीवन्तु जीवलोके ।
यौवनद्रहे पतिताः तरन्ति ये चैव लीलया ॥ ११७ ॥ ते चैव धन्यास्ते चैव सत्पुरुषास्ते जीवन्तु जीवलोके । ते के । वोद्दहशब्देन यौवनं स एव द्रहो महाहृदस्तत्र पतिताः सन्तस्तरन्ति ये चैव । कया । लीलयेति । अत्र विषयाकांक्षारूपस्नेह___ आगे स्नेहका दोष दृष्टांतसे दृढ करते हैं-तिलनिकरं] जैसे तिलोंका समूह [स्नेहं लगित्वा] स्नेह (चिकनाई) के सम्बन्धसे [जलसिंचनं] जलसे भीगना, [पादनिर्दलनं] पैरोंसे खुंदना, [यंत्रेण] घानीमें [पुनः पुनः] बार बार [पीडनदुःखं] पिलनेका दुख [सहमानं] सहता है, उसे [पश्य] देखो । भावार्थ-जैसे स्नेह (चीकनाई तेल) के सम्बन्ध होनेसे तिल घानीमें पेरे जाते हैं, उसी तरह जो पंचेन्द्रियके विषयोंमें आसक्त हैं-मोहित हैं वे नाशको प्राप्त होते हैं, इसमें कुछ संदेह नहीं है ।११६।
इस विषयमें कहा भी है-[ते चैव धन्याः ] वे ही धन्य हैं, [ते चैव सत्पुरुषाः] वे ही सज्जन हैं, और [ते] वे ही जीव [जीवलोके] इस जीवलोकमें [जीवंतु] जीवते हैं, [ये चैव] जो [यौवनद्रहे] जवान अवस्थारूपी बडे भारी तालाबमें [पतिताः] पडे हुए विषय-रसमें नहीं डूबते, [लीलया] लीला (खेल) मात्रमें ही [तरंति] तैर जाते हैं । वे ही प्रशंसा योग्य हैं । भावार्थ-यहाँ विषय वांछारूप जो स्नेह-जल उसके प्रवेशसे रहित जो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूपी रत्नोंसे भरा निज शुद्धात्मभावनारूपी जहाज उससे यौवन अवस्थारूपी महान तालाबको तैर जाते हैं वे ही
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