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________________ - दोहा १०९ ] परमात्मप्रकाशः २२७ 1 जानन्तोऽपि । के ते । परममुणि वीतरागस्वसंवेदनज्ञानरताः परममुनयः । किं कुर्वन्ति । परसंसग्गु चर्यंति परसंसर्ग त्यजन्ति निश्चयेनाभ्यन्तरे रागादिभावकर्म- ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मशरीरादिनोकर्म च बहिर्विषये मिथ्यात्वरागादिपरिणतासंवृतजनोऽपि परद्रव्यं भण्यते । तत्संसर्ग परिहरन्ति । यतः कारणात् परसंसग्गइं [?] पूर्वोक्तबाह्याभ्यन्तरपरद्रव्यसंसर्गेण परमप्पयहं वीतरागनित्यानन्दैकस्वभावपरमसमरसीभावपरिणतपरमात्मतत्त्वस्य । कथंभूतस्य । लक्खहं लक्ष्यस्य ध्येयभूतस्य धनुर्विद्याभ्यासप्रस्तावे लक्ष्यरूपस्यैव जेण चलंति येन कारणेन चलन्ति त्रिगुप्तिसमाधेः सकाशात् च्युता भवन्तीति । अत्र परमध्यानविघातकत्वान्मिथ्यात्वरागादिंपरिणामस्तत्परिणतः पुरुषरूपो वा परसंसर्गस्त्यजनीय इति भावार्थः ।। १०८ ।। अथ तमेव परद्रव्यसंसर्गत्यागं कथयति जो सम-भावहँ बाहिरउ तिं सहु मं करि संगु । चिता- सायर पडहि पर अण्णु वि डज्झइ अंगु ॥ १०९ ॥ यः समभावाद् बाह्यः तेन सह मा कुरु संगम् । चिन्तासागरे पतसि परं अन्यदपि दाते अङ्गः ॥ १०९ ॥ जो इत्यादि । जो यः कोऽपि समभावहं बाहिरउ जीवितमरणलाभालाभादिसमभावानुकूलविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मद्रव्यसम्यक् श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपसमभावबाह्यः । तं सहु मं करि संगु तेन सह संसर्ग मा कुरु हे आत्मन् । यतः किम् । चिंतासायरि पडहि राग[परमात्मनः] परमपद उससे [चलंति ] चलायमान हो जाते हैं । भावार्थ- शुद्धोपयोगी मुनि वीतराग स्वसंवेदनज्ञानमें लीन हुए परद्रव्योंके साथ सम्बन्ध छोड देते हैं । अन्दरके विकार रागादि भावकर्म और बाहरके शरीरादि ये सब परद्रव्य कहे जाते हैं । वे मुनिराज एक आत्मभावके सिवाय सब परद्रव्यका संसर्ग ( सम्बन्ध) छोड देते हैं । तथा रागी, द्वेषी, मिथ्यात्वी, असंयमी जीवोंका सम्बन्ध छोड देते हैं । इनके संसर्गसे परमपद जो वीतरागनित्यानन्द अमूर्तस्वभाव परमसमरसीभावरूप जो परमात्मतत्त्व ध्यावने योग्य है, उससे चलायमान हो जाते हैं, अर्थात् तीन गुप्तिरूप परमसमाधिसे रहित हो जाते है । यहाँपर परमध्यानके घातक जो मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध परिणाम तथा रागी द्वेषी पुरुषोंका संसर्ग सर्वथा त्याग करना चाहिये यह सारांश है || १०८ || आगे उन्हीं परद्रव्योंके संबंधको फिर छुडानेका कथन करते हैं - [ यः ] जो कोई [ समभावात् ] समभाव अर्थात् निजभावसे [ बाह्यः ] बाह्य पदार्थ हैं [ तेन सह ] उनके साथ [ संगं] संग [ मा कुरु] मत कर । क्योंकि उनके साथ संग करनेसे [ चिंतासागरे ] चिंतारूपी समुद्र में [ पतसि ] पडेगा, [परं] केवल [ अन्यदपि ] और भी [ अंग: ] शरीर [ दह्यते ] दाहको प्राप्त होगा, अर्थात् अन्दरसे जलता रहेगा || भावार्थ जो कोई जीवित, मरण, लाभ अलाभादिमें तुल्यभाव उसके सम्मुख जो निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्म द्रव्य उसका सम्यक् श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप निजभाव उसरूप समभावसे जो जुदे पदार्थ हैं, उनका संग छोड दे । क्योंकि उनके संगसे चिंतारूपी For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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