________________
२२४
योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा १०७जीवहं इत्यादि । जीवहं जीवानां भेउ जि भेद एव कम्मकिउ निर्भेदशुद्धात्मविलक्षणेन कर्मणा कृतः, कम्मु वि जीउ ण होइ ज्ञानावरणादिकमैव विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावं जीवस्वरूपं न भवति । कस्मान भवतीति चेत् । जेण विभिण्णउ होइ तहं येन कारणेन विभिन्नो भवति तेभ्यः कर्मभ्यः । किं कृता । कालु लहेविणु कोइ वीतरागपरमात्मानुभूतिसहकारिकारणभूतं कमपि कालं लब्ध्वेति । अयमत्र भावार्थः । टङ्कोत्कीर्णज्ञायकैकशुद्धजीवस्वभावाद्विलक्षणं मनोज्ञामनोज्ञस्त्रीपुरुषादिजीवभेदं दृष्ट्वा रागाधपध्यानं न कर्तव्यमिति ॥ १०६॥ अतः कारणात् शुद्धसंग्रहेण भेदं मा कार्षीरिति निरूपयति
एफुकरे मण विणि करि म करि वण्ण-विसेसु। इकाई देवर जे वसइ तिहुयणु एहु असेसु ॥ १०७ ।। एक कुरु मा द्वौ कुरु मा कुरु वर्णविशेषम् ।
एकेन देवेन येन वसति त्रिभुवनं एतद् अशेषम् ॥ १०७ ॥ एक करे इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । एक करे सेनावनादिवज्जीवजात्यपेक्षया सर्वमेकं कुरु । मण विण्णि करि मा द्वौ कार्षीः। मं करि वण्णविसेसु [जीवः] जीव [न भवति] नहीं हो सकता । [येन] क्योंकि वह जीव [कमपि] किसी [कालं] समयको [लब्वा] पाकर [तेभ्यः] उन कर्मोंसे [विभिन्नः] जुदा [भवति] हो जाता है । भावार्थ-कर्म शुद्धात्मासे जुदे हैं, शुद्धात्मा भेद कल्पनासे रहित है । ये शुभाशुभ कर्म जीवका स्वरूप नहीं है, जीवका स्वरूप तो निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव है । अनादिकालसे यह जीव अपने स्वरूपको भूल रहा है, इसलिये रागादि अशुद्धोपयोगसे कर्मको बाँधता है । सो कर्मका बंध अनादिकालका है । इस कर्मबंधसे कोई एक जीव वीतराग परमात्माकी अनुभूतिके सहकारी कारणरूप जो सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका समय उसको पाकर उन कर्मोंसे जुदा हो जाता है । कर्मोसे छूटनेका यही उपाय है । जब जीवके भवस्थिति समीप (थोडी) रही हो तभी सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, और जब सम्यक्त्व उत्पन्न हो जावे, तभी कर्म कलंकसे छूट सकता है । तात्पर्य यह है कि जो टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक शुद्ध स्वभाव उससे विलक्षण जो स्त्री पुरुषादि शरीरके भेद उनको देखकर रागादि खोटे ध्यान नहीं करने चाहिए ॥१०६।। ___ आगे ऐसा कहते हैं, कि तू शुद्ध संग्रहनयकर जीवोंमें भेद मत कर-[एकं कुरु] हे आत्मन्, तू जातिकी अपेक्षा सब जीवोंको एक जान, [मा द्वौ कार्षीः] इसलिये राग और द्वेष मत कर, [वर्णविशेषं] मनुष्य जातिकी अपेक्षा ब्राह्मणादि वर्णभेदको भी [मा कार्षीः] मत कर, [येन] क्योंकि [एकेन देवेन] अभेदनयसे शुद्ध आत्माके समान [एतद् अशेष] ये सब [त्रिभुवनं] तीनलोकमें रहनेवाली जीवराशि [वसति] ठहरी हुई है, अर्थात जीवपनेसे सब एक है । भावार्थ-सब जीवोंकी एक जाति है । जैसे सेना और वन एक है, वैसे जातिकी अपेक्षा सब जीव एक है । नर नारकादि भेद और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि वर्ण भेद सब कर्मजनित हैं, अभेदनयसे सब जीवोंको एक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org