________________
- दोहा १०१ ]
परमात्मप्रकाशः
रागद्वेषौ द्वौ परिहृत्य ये समान् जीवान् पश्यन्ति । ते समभावे प्रतिष्ठिताः लघु निर्वाणं लभन्ते ॥ १०० ॥
राय इत्यादि पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं क्रियते । रायदोस बे परिहरिवि वीतरागनिजानन्दैकस्वरूपस्वशुद्धात्मद्रव्यभावनाविलक्षणौ रागद्वेषौ परिहृत्य जे ये केचन सम जीव णियंति सर्वसाधारण केवलज्ञानदर्शनलक्षणेन समानान् सदृशान् जीवान् निर्गच्छन्ति जानन्ति ते ते पुरुषाः । कथंभूताः । समभावि परिट्टिया जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखादिसमताभावनारूपे समभावे प्रतिष्ठिताः सन्तः लहु णिव्वाणु लहंति लघु शीघ्रं आत्यन्तिकस्वभावैकाचिन्त्याद्भुतकेवलज्ञानादिगुणास्पदं निर्वाणं लभन्त इति । अत्रेदं व्याख्यानं ज्ञात्वा रागद्वेषौ त्यक्त्वा च शुद्धात्मानुभूतिरूपा समभावना कर्तव्येत्यभिप्रायः ।। १०० ।।
अथ सर्वजीवसाधारणं केवलज्ञानदर्शनलक्षणं प्रकाशयति
२१९
जीव दंसणु णाणु जिय लक्खणु जाणइ जो जि । देह - विभेऍ भेउ तहँ णाणि कि मण्णइ सो जि ॥ १०१ ॥ जीवानां दर्शनं ज्ञानं जीव लक्षणं जानाति य एव ।
देहविभेदेन भेदं तेषां ज्ञानी किं मन्यते तमेव ॥ १०१ ॥
जीवहं इत्यादि । जीवहं जीवानां दंसणु णाणु जगत्रयकालत्रयवर्तिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायाणां क्रमकरणव्यवधानरहितत्वेन परिच्छित्तिसमर्थं विशुद्धदर्शनं ज्ञानं च । जिय हे जीव लक्खणु [परिहृत्य ] दूर करके [जीवाः समाः ] सब जीवोंको समान [ निर्गच्छंति ] जानते हैं, [ते] वे साधु [समभावे ] समभावमें [ प्रतिष्ठिताः] विराजमान [ लघु ] शीघ्र ही [ निर्वाणं] मोक्षको [लभंते ] पाते हैं ।। भावार्थ - वीतराग निजानंदस्वरूप जो निज आत्मद्रव्य उसकी भावनासे विमुख जो राग द्वेष उनको छोडकर जो महान् पुरुष केवलज्ञान दर्शन लक्षणकर सब ही जीवोंको समान गिनते हैं, वे पुरुष समभावमें स्थित शीघ्र ही शिवपुरको पाते हैं । समभावका लक्षण ऐसा है, कि जीवित, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःखादि सबको समान जानें । जो अनन्त सिद्ध हुए और होवेंगे, यह सब समभावका प्रभाव है । समभावसे मोक्ष मिलता है । कैसा है वह मोक्षस्थान, जो अत्यंत अद्भुत अचिंत्य केवलज्ञानादि अनन्त गुणोंका स्थान है । यहाँ यह व्याख्यान जानकर राग द्वेषको छोडकर शुद्धात्माके अनुभवरूप जो समभाव उसका सेवन सदा करना चाहिये । यही इस ग्रंथका अभिप्राय है ||१००॥
Jain Education International
आगे सब जीवोंमें केवलज्ञान और केवलदर्शन साधारण लक्षण हैं, इनके बिना कोई जीव नहीं है । ये गुण शक्तिरूप सब जीवोंमें पाये जाते हैं, ऐसा कहते हैं - [ जीवानां ] जीवोंके [ दर्शनं ज्ञानं ] दर्शन और ज्ञान [ लक्षणं ] निज लक्षणको [ य एव] जो कोई [ जानाति ] जानता हैं, [ जीव] हे जीव, [ स एव ज्ञानी] वही ज्ञानी [ देहविभेदेन ] देहके भेदसे [तेषां भेदं] उन जीवोंके भेदको [ किं मन्यते ] क्या मान सकता है ? नहीं मान सकता || भावार्थ-तीन लोक और तीन कालवर्त्ती
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org