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योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ६१होउ तस्मादित्थंभूतं पुण्यं अस्माकं मा भूदिति । तथा च । इदं पूर्वोक्तं पुण्यं भेदाभेदरनत्रयाराधनारहितेन दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानबन्धपरिणामसहितेन जीवेन यदुपार्जितं पूर्वभवे तदेव मदमहंकारं जनयति बुद्धिविनाशं च करोति । न च पुनः सम्यक्त्वादिगुणसहितं भरतसगररामपाण्डवादिपुण्यबन्धवत् । यदि पुनः सर्वेषां मदं जनयति तर्हि ते कथं पुण्यभाजनाः सन्तो मदाहंकारादिविकल्पं त्यक्त्वा मोक्षं गताः इति भावार्थः ॥ तथा चोक्तं चिरन्तनानां निरहंकारत्वम्-" सत्यं वाचि मतौ श्रुतं हृदि दया शौर्य भुजे विक्रमे लक्ष्मीर्दानमनूनमर्थिनिचये मार्ग गतिनिर्वृतेः। येषां प्रागजनीह तेऽपि निरहंकाराः श्रुतेर्गोचराश्चित्रं संप्रति लेशतोऽपि न गुणास्तेषां तथाप्युद्धताः॥"॥६०॥ अथ देवशास्त्रगुरुभक्त्या मुख्यवृत्त्या पुण्यं भवति न च मोक्ष इति प्रतिपादयति
देवहँ सत्थहँ मुणिवरहँ भत्तिए पुण्णु हवेइ । कम्म-क्खउ पुणु होइ णवि अजउ संति भणेइ ॥ ६१ ॥ देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां भक्त्या पुण्यं भवति ।
कर्मक्षयः पुनः भवति नैव आर्यः शान्तिः भणति ॥ ६१ ॥ देवहं इत्यादि । देवहं सत्थहं मुणिवरहं भत्तिए पुण्णु हवेइ देवशास्त्रमुनीनां भक्त्या पुण्यं भवति कम्मक्खउ पुणु होइ णवि कर्मक्षयः पुनर्मुख्यवृत्त्या नैव भवति । एवं कोऽसौ भेदाभेदरत्नत्रयकी आराधनासे रहित, देखे सुने अनुभव किये भोगोंकी वांछारूप निदानबंधके परिणामों सहित जो मिथ्यादृष्टि संसारी अज्ञानी जीव हैं, उसने पहले उपार्जन किये भोगोंकी वांछारूप पुण्य उसके फलसे प्राप्त हुई घरमें सम्पदा होनेसे अभिमान (घमंड) होता है, अभिमानसे बुद्धि भ्रष्ट होती है, बुद्धि भ्रष्टकर पाप कमाता है, और पापसे भव भवमें अनंत दुःख पाता है । इसलिये मिथ्यादृष्टियोंका पुण्य पापका ही कारण है । जो सम्यक्त्वादि गुण सहित भरत, सगर, राम, पांडवादिक विवेकी जीव हैं, उनको पुण्यबंध अभिमान नहीं उत्पन्न करता, परम्पराय मोक्षका कारण हैं । जैसे अज्ञानियोके पुण्यका फल विभूति गर्वका कारण है, वैसे सम्यग्दृष्टियोंके नहीं है । वे सम्यग्दृष्टि पुण्यके पात्र हुए चक्रवर्ती आदिकी विभूति पाकर मद अहंकारादि विकल्पोंको छोडकर मोक्षको गये अर्थात् सम्यग्दृष्टिजीव चक्रवर्ती बलभद्र-पदमें भी निरहंकार रहे । ऐसा ही कथन आत्मानुशासन ग्रंथमें श्रीगुणभद्राचार्यने किया है, कि पहले समयमें ऐसे सत्पुरुष हो गये हैं, कि जिनके वचनमें सत्य, बुद्धिमें शास्त्र, मनमें दया, पराक्रमरूप भुजाओंमें शूरवीरता, याचकोंमें पूर्ण लक्ष्मीका दान, और मोक्षमार्गमें गमन है, वे निरभिमानी हुए, जिनके किसी गुणका अहंकार नहीं हुआ । उनके नाम शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है, परंतु अब बडा अचंभा है, कि इस पंचमकालमें लेशमात्र भी गुण नहीं हैं, तो भी उनके उद्धतपना है, यानि गुण तो रंचमात्र भी नहीं, और अभिमानमें बुद्धि
रहती है ॥६॥
__ आगे देव गुरु शास्त्रकी भक्तिसे मुख्यतासे तो पुण्यबंध होता है, उससे परम्पराय मोक्ष होता है, साक्षात् मोक्ष नहीं, ऐसा कहते हैं-[देवानां शास्त्राणां मुनिवराणां] श्रीवीतरागदेव, द्वादशांग शास्त्र
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