________________
१६२
योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ४२जीउ जीवः । कथंभूतो भवति । असंजदु असंयतः। कोऽसौ । सोइ स एव पूर्वोक्तजीव इति । अयमत्र भावार्थः । अनाकुलखलक्षणस्य स्वशुद्धात्मभावनोत्थपारमार्थिकसुखस्यानुकूलपरमोपशमे यदा ज्ञानी तिष्ठति तदा संयतो भवति तद्विपरीतं परमाकुलखोत्पादककामक्रोधादौ परिणतः पुनरसंयतो भवतीति । तथा चोक्तम्- "अकसायं तु चरित्तं कसायवसगदो असंजदो होदि । उवसमइ जम्हि काले तत्काले संजदो होदि " ॥४१॥ अथ येन कषाया भवन्ति मनसि तं मोहं त्यजेति प्रतिपादयति
जेण कसाय हवंति मणि सो जिय मिल्लहि मोहु । मोह-कसाय-विवज्जयउ पर पावहि सम-बोहु ॥ ४२ ।। येन कषाया भवन्ति मनसि तं जीव मुञ्च मोहम् ।
मोहकषायविवर्जितः परं प्राप्नोषि समबोधम् ॥ ४२ ॥ जेण इत्यादि । जेण येन वस्तुना वस्तुनिमित्तेन मोहेन वा । किं भवति । कसाय हवंति क्रोधादिकषाया भवन्ति । क भवन्ति । मणि मनसि सो तं जिय हे जीव मिल्लहि मुश्च । कम् । तं पूर्वोक्तं मोहु मोहं मोहनिमित्तपदार्थं चेति । पश्चात् किं लभसे खम् । मोहकसायविवजिउ मोहकषायविवर्जितः सन् पर परं नियमेन पावहि प्रामोषि । कं कर्मतापन्नम् । समबोहु समबोधं रागद्वेषरहितं ज्ञानमिति । तथाहि । निर्मोहनिजशुद्धात्मध्यानेन निर्मोहस्वशुद्धात्मतत्त्वविपरीतं समय [ज्ञानी जीवः] ज्ञानी जीव [उपशाम्यति] शांतभावको प्राप्त होता है, [तदा] उस समय [संयतः भवति] संयमी होता है, और [कषायाणां] क्रोधादि कषायोंके [वशे गतः] आधीन हुआ [स एव] वही जीव [असंयतः] असंयमी [भवति] होता है । भावार्थ-आकुलता रहित निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न हुये निर्विकल्प (असली) सुखका कारण जो परम शांतभाव उसमें जिस समय ज्ञानी ठहरता है, उसी समय संयमी कहलाता है, और आत्मभावनामें परम आकुलताके उपजानेवाले काम क्रोधादिक अशुद्ध भावोंमें परिणमता हुआ जीव असंयमी होता है, इसमें कुछ संदेह नहीं है । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है-'अकसायं' इत्यादि । अर्थात् कषायका जो अभाव है, वही चारित्र है, इसलिये कषायके आधीन हुआ जीव असंयमी होता है, और जब कषायोंको शांत करता है, तब संयमी कहलाता है ॥४१॥
आगे जिस मोहसे मनमें कषाय होते हैं, उस मोहको तू छोड, ऐसा वर्णन करते हैं [जीव] हे जीव; [येन] जिस मोहसे अथवा मोहके उत्पन्न करनेवाली वस्तुसे [मनसि] मनमें [कषायाः] कषाय [भवंति] होवें, [तं मोहं] उस मोहको अथवा मोह निमित्तक पदार्थको [मुंच] छोड, [मोहकषायविवर्जितः] फिर मोहको छोडनेसे मोह कषाय रहित हुआ तू [परं] नियमसे [समबोधं] राग द्वेष रहित ज्ञानको [प्राप्नोषि] पावेगा ।। भावार्थ-निर्मोह निज शुद्धात्माके ध्यानसे निर्मोह निज शुद्धात्मतत्त्वसे विपरीत मोहको, हे जीव. छोड । जिस मोहसे अथवा मोह करनेवाले पदार्थसे कषाय रहित परमात्मतत्त्वरूप ज्ञानानंद स्वभावके विनाशक क्रोधादि कषाय होते हैं, इन्हींसे संसार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org