SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५६ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ३६तुर्विधो भवति । तत्र चतुष्टयमध्ये द्वितीयं यदचक्षुर्दर्शनं मानसरूपं निर्विकल्पं यथा भव्यजीवस्य दर्शनमोहचारित्रमोहोपशमक्षयोपशमक्षयलाभे सति शुद्धात्मानुभूतिरुचिरूपं वीतरागसम्यक्त्वं भवति तथैव च शुद्धात्मानुभूतिस्थिरतालक्षणं वीतरागचारित्रं भवति तदा काले तत्पूर्वोक्तं सत्तावलोकलक्षणं मानसं निर्विकल्पदर्शनं कर्तृ पूर्वोक्तनिश्चयसम्यक्वचारित्रबलेन निर्विकल्पनिजशुद्धात्मानुभूतिध्यानेन सहकारिकारणं भवति पूर्वोक्तभव्यजीवस्य न चाभव्यस्य । कस्मात् । निश्चयसम्यक्त्वचारित्राभावादिति भावार्थः ॥ ३५॥ अथ परमध्यानारूढो ज्ञानी समभावेन दुःखं सहमानः स एवाभेदेन निर्जराहेतुर्भण्यते इति दर्शयति-- दुक्खु वि सुक्खु सहंतु जिय णाणिउ झाण-णिलीणु । कम्महँ णिज्जर-हेउ तउ वुच्चइ संग-विहीणु ।। ३६ ॥ दुःखमपि सुखं सहमानः जीव ज्ञानी ध्याननिलीनः । कर्मणः निर्जराहेतुः तपः उच्यते संगविहीनः ॥ ३६॥ दुक्खु वि इत्यादि । दुक्खु वि सुक्खु सहंतु दुःखमपि सुखमपि समभावेन सहमानः सन् जिय हे जीव । कोऽसौ कर्ता । णाणिउ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी । किंविशिष्टः । झाणणिलीणु वीतरागचिदानन्दैकाग्र्यध्याननिलीनो रतः स एवाभेदेन कम्महं णिज्जरहेउ शुभाशुभकर्मणो निर्जराहेतुरुच्यते न केवलं ध्यानपरिणतपुरुषो निर्जराहेतुरुच्यते तउ परद्रव्येच्छाभेदसे दर्शनोपयोग चार तरहका होता है । उन चार भेदोंमें दूसरा भेद अचक्षुदर्शन मनसंबंधी निर्विकल्प भव्यजीवोंके दर्शनमोह चारित्रमोहके उपशम क्षयोपशम तथा क्षयके होनेपर शुद्धात्मानुभूति रुचिरूप वीतराग सम्यक्त्व होता है, और शुद्धात्मानुभूतिमें स्थिरतारूप वीतरागचारित्र होता है, उस समय पूर्वोक्त सत्ताके अवलोकनरूप मनसंबंधी निर्विकल्पदर्शन निश्चयचारित्रके बलसे विकल्प रहित निज शुद्धात्मानुभूतिके ध्यानकर सहकारी कारण होता है । इसलिये व्यवहारसम्यग्दर्शन और व्यवहारसम्यग्ज्ञान भव्यजीवके ही होता है, अभव्यके सर्वथा नहीं, क्योंकि अभव्यजीव मुक्तिका पात्र नहीं है । जो मुक्तिका पात्र होता है, उसीके व्यवहाररत्नत्रयकी प्राप्ति होती है । व्यवहाररत्नत्रय परम्पराय मोक्षका कारण है, और निश्चयरत्नत्रय साक्षात् मुक्तिका कारण है, ऐसा तात्पर्य हुआ ॥३५॥ आगे परमध्यानमें आरूढ ज्ञानी जीव समभावसे दुःख सुखको सहता हुआ अभेदनयसे निर्जराका कारण होता है, ऐसा दिखाते हैं जीव] हे जीव, [ज्ञानी] वीतरागस्वसंवेदनज्ञानी [ध्याननिलीनः] आत्मध्यानमें लीन [दुःखं अपि सुखं] दुःख और सुखको [सहमानः] समभावोंसे सहता हुआ अभेदनयसे [कर्मणो निर्जराहेतुः] शुभ अशुभ कर्मोंकी निर्जराका कारण है, ऐसा भगवानने [उच्यते] कहा है, और [संगविहीनः तपः] बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित परद्रव्यकी इच्छाके निरोधरूप बाह्य अभ्यंतर अनशनादि बारह प्रकारके तपरूप भी वह ज्ञानी है ।। भावार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy