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-दोहा ३३] परमात्मप्रकाशः
१५३ णितं द्रव्यपरमाणुं भावपरमाणुं वाध्याला केवलज्ञानमुत्पादयन्तीत्यत्र विषये अस्माकं संदेहोऽस्ति। अत्र श्रीयोगीन्द्रदेवाः परिहारमाहुः । तत्र द्रव्यपरमाणुशब्देन द्रव्यसूक्ष्मवं भावपरमाणुशब्देन भावसूक्ष्मवं ग्राह्य न च पुद्गलद्रव्यपरमाणुः । तथा चोक्तं सर्वार्थसिद्धिटिप्पणिके । द्रव्यपरमाणुशब्देन द्रव्यसूक्ष्मखं भावपरमाणुशब्देन भावसूक्ष्मखमिति । तद्यथा । द्रव्यमात्मद्रव्यं तस्य परमाणुशब्देन सूक्ष्मावस्था ग्राह्या । सा च रागादिविकल्पोपाधिरहिता तस्य सूक्ष्मवं कथमिति चेत् , निर्विकल्पसमाधिविषयवेनेन्द्रियमनोविकल्पातीतखात् । भावशब्देन स्वसंवेदनपरिणामः तस्य भावस्य परमाणुशब्देन सूक्ष्मावस्था ग्राह्या । सूक्ष्मा कथमिति चेत् । वीतरागनिर्विकल्पसमरसीभावविषयेन पञ्चेन्द्रियमनोविषयातीतखादिति । पुनरप्याह । इदं परद्रव्यावलम्बनं ध्यानं निषिद्धं किल भवद्भिः निजशुद्धात्मध्यानेनैव मोक्षः कुत्रापि भणितमास्ते। परिहारमाह-'अप्पा झायहि णिम्मलउ' इत्यत्रैव ग्रन्थे निरन्तरं भणितमास्ते, ग्रन्थान्तरे च समाधिशतकादौ पुनश्चोक्तं तैरेव पूज्यपादस्वामिभिः-"आत्मानमात्मा आत्मन्येवात्मनासौ क्षणमुपजनयन् स स्वयंभूः प्रवृत्तः" अस्यार्थः । आत्मानं कर्मतापनं आत्मा कर्ता आत्मन्येवाधिकरणभूते असौ पूर्वोक्तात्मा आत्मना करणभूतेन क्षणमन्तर्मुहर्तमानं उपजनयन् निर्विकल्पसमाधिनाराधयन् स स्वयंभूः प्रवृत्तः सर्वज्ञो जात इत्यर्थः । ये च तत्र द्रव्यभावपरमाणुध्येयलक्षणे शुक्लध्याने ब्यधिकचत्वारिंशद्विकल्पा भणितास्तिष्ठन्ति ते पुनरनीहितवृत्त्या ग्राह्याः। केन दृष्टान्तेनेति चेत् । यथा प्रथमौद्रव्यपरमाणुसे द्रव्यकी सूक्ष्मता और भावपरमाणुसे भावकी सूक्ष्मता समझना, अन्य द्रव्यका कथन न लेना । यहाँ निज द्रव्य तथा निज गुण पर्यायका ही कथन है, अन्य द्रव्यका प्रयोजन नहीं है । द्रव्य अर्थात् आत्मद्रव्य उसकी सूक्ष्मता वह द्रव्यपरमाणु कहा जाता है । वह रागादि विकल्पकी उपाधिसे रहित है, उसको सूक्ष्मपना कैसे हो सकता है ? ऐसा शिष्यने प्रश्न किया । उसका समाधान इस तरह है-कि मन इन्द्रियोंके अगोचर होनेसे सूक्ष्म कहा जाता है, तथा भाव (स्वसंवेदन-परिणाम) भी परमसूक्ष्म हैं, वीतराग निर्विकल्प परमसमरसीभावरूप हैं, वहाँ मन और इन्द्रियोंकी गम्य नहीं हैं, इसलिये सूक्ष्म है । ऐसा कथन सुनकर फिर शिष्यने पूछा, कि तुमने परद्रव्यके आलम्बनरूप ध्यानका निषेध किया, और निज शुद्धात्माके ध्यानसे ही मोक्ष कहा । ऐसा कथन किस जगह कहा है ? इसका समाधान यह है-“अप्पा झायहि णिम्मलउ" निर्मल आत्माको ध्यावो, ऐसा कथन इस ही ग्रंथमें पहले कहा है, और समाधिशतकमें भी श्रीपूज्यपादस्वामीने कहा है “आत्मानम्" इत्यादि । अर्थात् जीवपदार्थ अपने स्वरूपको अपनेमें ही अपने करके एक क्षणमात्र भी निर्विकल्प समाधिकर आराधता हुआ वह सर्वज्ञ वीतराग हो जाता है । जिस शुक्लध्यानमें द्रव्यपरमाणुकी सूक्ष्मता और भावपरमाणुकी सूक्ष्मता ध्यान करने योग्य है, ऐसे शुक्लध्यानमें निजवस्तु और निजभावका ही सहारा है, परवस्तुका नहीं । सिद्धान्तमें शुक्लध्यानके बयालीस भेद कहे हैं, वे अवांछीक वृत्तिसे गौणरूप जानना, मुख्य वृत्तिसे न जानना । उसका दृष्टांत-जैसे उपशमसम्यक्त्वके ग्रहणके समय परमागममें प्रसिद्ध जो अधःकरणादि भेद हैं, उनको
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