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________________ दोहा २२ ] परमात्मप्रकाशः १३७ पुद्गलद्रव्योपादानकारणजातत्वाद् घटादिवत् इति । तथा चोक्तम् । उरादानकारणसदृशं कार्य भवति मृत्पिण्डाद्युपादानकारणजनितघटादिवदेव न च तथा समग्रनिमिषघटिकादिवसादिकालपर्याया मूर्ता दृश्यन्ते । यैः पुनः पुनलपरमाणुमन्दगतिगमन्नयनपुटविघटनजलभाजन हस्तादिव्यापारदिनकरबिम्बगमनादिभिः पुद्गलपर्यायभूतैः क्रियाविशेषैः समयादिकालपर्यायाः परिच्छिद्यन्ते, ते चाणुव्यतिक्रमणादयः तेषामेव समयादिकालपर्यायाणां व्यक्तिनिमित्तत्वेन बहिरङ्गसहकारिकारणभूता एव ज्ञातव्या न चोपादानकारणभूता घटोत्पत्तौ कुम्भकारचक्रचीवरादिवत् । तस्माद् ज्ञायते तत्कालद्रव्यममूर्तमविनश्वरमस्तीति तस्य तत्पर्यायाः समयनिमिषादय इति । अत्रेदं तु कालद्रव्यं सर्वप्रकारोपादेयभूतात् शुद्धबुद्धैकस्वभावाज्जीवद्रव्याद्भिन्नत्वाद्धेयमिति तात्पर्यार्थः ॥ २१ ॥ अथ जीवपुद्गलकालद्रव्याणि मुक्त्वा शेषधर्माधर्माकाशान्येकद्रव्याणीति निरूपयतिजीउ वि पुग्गलु कालु जिय ए मेल्लेविणु दव्व । इयर अखंड वियाणि तुहुँ अप्प -पए सहि सव्व ॥ २२ ॥ जीवोsपि पुद्गलः कालः जीव एतानि मुक्त्वा द्रव्याणि । इतराणि अखण्डानि विजानीहि त्वं आत्मप्रदेशैः सर्वाणि ॥ २२ ॥ जीउ वि इत्यादि । जीउ वि जीवोsपि पुग्गल पुद्गलः कालु काल: जिय हे जीव ए विणु तानि मुक्ता दव्व द्रव्याणि इयर इतराणि धर्माधर्माकाशानि अखंड अखण्डद्रव्याणि वियाणि विजानीहि तुहुं त्वं हे प्रभाकरभट्ट | कैः कृत्वाखण्डानि विजानीहि । करता है तब समय होता है, सो समय-पर्याय कालकी है, पुद्गलपरमाणुके निमित्तसे होते हैं, नेत्रों का मिलना तथा विघटना उससे निमेष होता है, जल-पात्र तथा हस्तादिकके व्यापारसे घटिका होती है, और सूर्य-बिम्बके उदयसे दिन होता है, इत्यादि कालकी पर्याय हैं, पुद्गलद्रव्यके निमित्तसे होती हैं, पुद्गल इन पर्यायोंका मूलकारण नहीं है, मूलकारण काल है । यदि पुद्गल मूलकारण होता तो समयादिक मूर्तिक होते । जैसे मूर्तिक मिट्टीके ढेलेसे उत्पन्न घडे वगैरह मूर्तिक होते हैं, वैसे समयादिक मूर्तिक नहीं हैं । इसलिये अमूर्तद्रव्य जो काल उसकी पर्याय हैं, द्रव्य नहीं हैं, कालद्रव्य अणुरूप अमूर्तिक अविनश्वर है, और समयादिक पर्याय अमूर्तिक हैं, परंतु विनश्वर हैं, अविनश्वरपना द्रव्यमें ही है, पर्यायमें नहीं है, यह निश्चयसे जानना । इसलिये समयादिको कालद्रव्यकी पर्यायही कहना चाहिये, पुद्गलकी पर्याय नहीं हैं, पुद्गलपर्याय मूर्तिक है । सर्वथा उपादेय शुद्ध बुद्ध केवलस्वभाव जो जीव उससे भिन्न कालद्रव्य है, इसलिये हेय है, यह सारांश हुआ ॥ २१॥ आगे जीव पुद्गल काल ये तीन द्रव्य अनेक हैं, और धर्म अधर्म आकाश ये तीन द्रव्य एक हैं, ऐसा कहते हैं - [ जीव] हे जीव, [त्वं ] तू [ जीवः अपि ] जीव और [ पुद्गलः ] पुद्गल [काल: ] काल [ एतानि द्रव्याणि ] इन तीन द्रव्योंको [ मुक्त्वा ] छोडकर [ इतराणि ] दूसरे धर्म अधर्म आकाश [सर्वाणि] ये सब तीन द्रव्य [ आत्मप्रदेशैः ] अपने प्रदेशोंसे [ अखंडानि ] www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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