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________________ परमात्मप्रकाशः १२९ -दोहा १५ ] रूपो निश्चयमार्गः। अथवा साधको व्यवहारमोक्षमार्गः, साध्यो निश्चयमोक्षमार्गः। अत्राह शिष्यः। निश्चयमोक्षमार्गों निर्विकल्पः तत्काले सविकल्पमोक्षमार्गों नास्ति कथं साधको भवतीति । अत्र परिहारमाह । भूतनैगमनयेन परंपरया भवतीति । अथवा सविकल्पनिर्विकल्पभेदेन निश्चयमोक्षमार्गों द्विधा, तत्रानन्तज्ञानरूपोऽहमित्यादि सविकल्पसाधको भवति, निर्विकल्पसमाधिरूपो साध्यो भवतीति भावार्थः ॥ सविकल्पनिर्विकल्पनिश्चयमोक्षमार्गविषये संवादगाथामाह-"जं पुण सगयं तच्चं सवियप्पं होइ तह य अवियप्पं । सवियप्पं सासवयं णिरासवं विगयसंकप्पं ।" ॥१४॥ एवं पूर्वोक्तकोनविंशतिसूत्रममितमहास्थलमध्ये निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गप्रतिपादनरूपेण सूत्रत्रयं गतम् । इदानीं चतुर्दशसूत्रपर्यन्तं व्यवहारमोक्षमार्गप्रथमावयवभूतव्यवहारसम्यक्त्वं मुख्यवृत्त्या प्रतिपादयति । तद्यथा व्वइँ जाणइ जहठियह तह जगि मण्णइ जो जि। अप्पहँ केरउ भावडउ अविचलु दंसणु सो जि ॥ १५ ॥ द्रव्याणि जानाति यथास्थितानि तथा जगति मन्यते य एव । आत्मनः संबन्धी भावः अविचलः दर्शनं स एव ॥ १५ ॥ श्रद्धा करे, तत्त्वोंका जानपना होवे, अशुभ क्रिया मिट जावे, तब वह अध्यात्मका अधिकारी हो सकता है । जैसे मलिन कपडा धोनेसे रंगने योग्य होता है, बिना धोये रंग नहीं लगता, इसलिये परम्पराय मोक्षका कारण व्यवहाररत्नत्रय कहा है । मोक्षका मार्ग दो प्रकारका है, एक व्यवहार, दुसरा निश्चय । निश्चय तो साक्षात मोक्षमार्ग है, और व्यवहार परम्पराय है । अथवा सविकल्प निर्विकल्पके भेदसे निश्चयमोक्षमार्ग भी दो प्रकारका है । मैं अनंतज्ञानरूप हूँ, शुद्ध हूँ, एक हूँ, ऐसा 'सोऽहं' का चिंतवन है, वह तो सविकल्प निश्चय मोक्षमार्ग है, उसको साधक कहते हैं, और जहाँपर कुछ चितवन नहीं है, कुछ बोलना नहीं है, और कुछ चेष्टा नहीं है, वह निर्विकल्पसमाधिरूप साध्य है, यह तात्पर्य हुआ । इसी कथनके बारेमें द्रव्यसंग्रहकी साक्षी देते हैं-"मा चिट्ठह" इत्यादि । सारांश यह है, कि हे जीव, तू कुछ भी कायकी चेष्टा मत कर, कुछ बोल भी मत, मौनसे रह, और कुछ चितवन मत कर । सब बातोंको छोड, आत्मामें आपको लीन कर, यह ही परमध्यान है । श्रीतत्त्वसारमें भी सविकल्प निर्विकल्प निश्चयमोक्षमार्गके कथनमें यह गाथा कही है कि “जं पुण समयं” इत्यादि । इसका सारांश यह है कि जो आत्मतत्त्व है, वह भी सविकल्प निर्विकल्पके भेदसे दो प्रकारका है, जो विकल्प सहित है, वह तो आस्रव सहित है, और जो निर्विकल्प है, वह आस्रव रहित है ।।१४।। इस तरह पहले महास्थलमें अनेक अंतरस्थलों से उन्नीस दोहोंके स्थलमें तीन दोहोंसे निश्चय व्यवहार मोक्षमार्गका कथन किया । आगे चौदह दोहापर्यंत व्यवहारमोक्षमार्गका पहला अंग व्यवहारसम्यक्त्वको मुख्यतासे कहते हैं-[य एव] जो [द्रव्याणि] द्रव्योंको [यथास्थितानि] जैसा उनका स्वरूप है, वैसा [जानाति] पर १९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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