SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० योगीन्दुदेवविरचितः [ अ० २, दोहा ७ निषिद्धाः । ये च प्रदीपनिर्वाणवज्जीवाभावं मोक्षं मन्यन्ते सौगतास्ते च निरस्ताः । यच्चोक्तं सांख्यैः सुप्तावस्थावत् सुखज्ञानरहितो मोक्षस्तदपि निरस्तम् । लोकाग्रे तिष्ठतीति वचनेन तु मण्डिकसंज्ञा नैयायिक मतान्तर्गता यत्रैव मुक्तस्तत्रैव तिष्ठतीति वदन्ति तेऽपि निरस्ता इति । जैनमते पुनरिन्द्रियजनितज्ञानसुखस्याभावे न चातीन्द्रियज्ञानसुखस्येति कर्मजनितेन्द्रियादिदशप्राणसहितस्याशुद्धजीवस्याभावेन न पुनः शुद्धजीवस्येति भावार्थः ।। ६ ।। अथोत्तमं सुखं न ददाति यदि मोक्षस्तर्हि सिद्धाः कथं निरन्तरं सेवन्ते तमिति कथयति - उतमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ । तो किं सयलु वि कालु जिय सिद्ध वि सेवहि सोइ ॥ ७ ॥ उत्तमं सुखं न ददाति यदि उत्तमः मोक्षो न भवति । ततः किं सकलमपि कालं जीब सिद्धा अपि सेवन्ते तमेव ॥ ७ ॥ 1 उत्तमु इत्यादि । उत्तमु सुक्खु उत्तमं सुखं ण देश न ददाति जइ यदि चेत् । उत्तमु उत्तमो मुक्खु मोक्षः ण होइ न भवति । तो ततः कारणात्, किं किमर्थ, सयलु वि कालु सकलमपि कालम् । जिय हे जीव । सिद्ध वि सिद्धा अपि सेवहिं सेवन्ते सोइ तमेव कथनका "लोक-शिखरपर तिष्ठता है", इस वचनसे निषेध किया । जहाँ बंधनसे छूटता है, वहाँ वह नहीं रहता, यह प्रत्यक्ष देखनेमें आता है, जैसे कैदी कैदसे जब छूटता है, तब बंदीगृहसे छूटकर अपने घरकी तरफ गमन करता है, वह निजघर निर्वाण ही है । जैन-मार्गमें तो इंद्रियजनितज्ञान I जो कि मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय हैं, उनका अभाव माना है, और अतींद्रियरूप जो केवलज्ञान है, वह वस्तुका स्वभाव है, उसका अभाव आत्मामें नहीं हो सकता । स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द इन पाँच इंद्रिय विषयोंकर उत्पन्न हुए सुखका तो अभाव ही है, लेकिन अतींद्रिय सुख जो निराकुल परमानंद है, उसका अभाव नहीं है । कर्मजनित जो इंद्रियादि दस प्राण अर्थात् पाँच इंद्रियाँ, वचन, काय, आयु, श्वासोच्छ्वास इन दस प्राणोंका भी अभाव है, ज्ञानादि निज प्राणोंका अभाव नहीं है । जीवकी अशुद्धताका अभाव है, शुद्धपनेका अभाव नहीं यह निश्चयसे जानना ||६|| मन, आगे कहते हैं कि यदि मोक्ष उत्तम सुख नहीं दे, तो सिद्ध उसे निरंतर क्यों सेवन करें ? [ यदि ] यदि [उत्तमं सुखं] उत्तम अविनाशी सुखको [ न ददाति ] नहीं देवे, तो [ मोक्षः उत्तमः ] मोक्ष उत्तम भी [ न भवति ] नहीं हो सकता; उत्तम सुख देता है, इसीलिये मोक्ष सबसे उत्तम है । यदि मोक्षमें परमानंद नहीं होता [ततः ] तो [ जीव] हे जीव [ सिद्धा अपि ] सिद्धपरमेष्ठी भी [सकलमपि कालं ] सदा काल [ तमेव ] उसी मोक्षको [ किं सेवंते ] क्यों सेवन करते ? कभी भी न सेवते ॥ भावार्थ - वह मोक्ष अखंड सुख देता है, इसीलिये उसे सिद्ध महाराज सेवते हैं, मोक्ष परम आह्लादरूप है, अविनश्वर है, मन और इंद्रियोंसे रहित है, इसीलिये उसे सदाकाल सिद्ध सेवते हैं, केवलज्ञानादि गुण सहित सिद्धभगवान निरंतर निर्वाणमें ही निवास करते हैं, ऐसा निश्चित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy