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________________ ११८ योगीन्दुदेवविरचितः [अ० २, दोहा ५परश्चासौ लोकश्च परलोक इति । परलोकशब्दस्य व्युत्पत्त्यर्थों ज्ञातव्यः न चान्यः कोऽपि परकल्पितः शिवलोकादिरस्तीति । अत्र स एव परलोकशब्दवाच्यः परमात्मोपादेय इति तात्पर्यम् ॥ ४ ॥ अथ तमेव मोक्षं सुखदायकं दृष्टान्तद्वारेण द्रढयति उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ। तो किं इच्छहि बंधणहि बद्धा पसुय वि सोइ ॥५॥ उत्तमं सुखं न ददाति यदि उत्तमो मोक्षो न भवति । ततः किं इच्छन्ति बन्धनैः बद्धा पशवोऽपि तमेव ॥ ५ ॥ उत्तमु इत्यादि । उत्तमु उत्तमं सुक्खु सुखं ण देह जइ न ददाति यदि चेत उत्तमु मुक्खु ण होइ उत्तमो मोक्षो न भवति तो तस्मात्कारणात किं किमर्थं इच्छहिं इच्छन्ति बंधणहि बन्धनैः बद्धा निबद्धाः। पसुय वि पशवोऽपि। किमिच्छन्ति । सोइ तमेव मोक्षमिति । अयमत्र भावार्थः। सुखकारणत्वाद्धेतोः बन्धनबद्धाः पशवोऽपि मोक्षमिच्छन्ति तेन कारणेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाविनाभूतस्योपादेयरूपस्यानन्तसुखस्य कारणत्वादिति ज्ञानिनो विशेषेण मोक्षमिच्छन्ति ॥ ५॥ __ अथ यदि तस्य मोक्षस्याधिकगुणगणो न भवति तर्हि लोको निजमस्तकस्योपरि तं किमर्थं धरतीति निरूपयति-~ अणु जइ जगहँ वि अहिययरु गुण-गणु तासु ण होइ । तो तइलोउ वि किं धरइ णिय-सिर-उप्परि सोइ ॥ ६ ॥ हैं, उनके आगे लोक लगानेसे मोक्षके नाम हो जाते हैं, दूसरा कोई कल्पना किया हुआ शिवलोक, ब्रह्मलोक या विष्णुलोक नहीं है । यहाँ पर सारांश यह हुआ कि परलोकके नामसे कहा गया परमात्मा ही उपादेय है, ध्यान करने योग्य है, अन्य कोई नहीं ॥४॥ आगे मोक्ष अनंत सुखका देनेवाला है, इसको दृष्टांतके द्वारा दृढ करते हैं-[यदि] यदि [मोक्षः] मोक्ष [उत्तमं सुखं] उत्तम सुखको [न ददाति] न देवे तो [उत्तमः] उत्तम [न भवति] नहीं होवे और यदि मोक्ष उत्तम ही न होवे [ततः] तो [बंधनैः बद्धाः] बंधनोंसे बंधे [पश्चोऽपि] पशु भी [तमेव] उस मोक्षकी ही [किं इच्छंति] क्यों इच्छा करें ? ॥ भावार्थ-बँधनेके समान कोई दुःख नहीं है, और छूटनेके समान कोई सुख नहीं है, बंधनसे बँधे जानवर भी छूटना चाहते हैं, और जब वे छूटते हैं, तब सुखी होते हैं । इस सामान्य बंधनके अभावसे ही पशु सुखी होते हैं, तो कर्म बंधनके अभावसे ज्ञानीजन परमसुखी होवें, इसमें अचम्भा क्या हैं ? इसलिये केवलज्ञानादि अनंत गुणसे तन्मयी अनन्त सुखका कारण मोक्ष ही आदरने योग्य है, इस कारण ज्ञानी पुरुष विशेषतासे मोक्षको ही इच्छते हैं ॥५॥ आगे बतलाते हैं-यदि मोक्षमें अधिक गुणोंका समूह नहीं होता, तो मोक्षको तीन लोक अपने मस्तकपर क्यों रखता ? [अन्यद्] फिर [यदि] यदि [जगतः अपि] सब लोकसे भी [अधिकतरः] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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