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________________ दोहा ४८ ] प्रायं मनसि धृत्वा सूत्रं कथयति परमात्मप्रकाशः कम्महिं जासु जणंतहि वि णिउ णिउ कज्जु सया वि । किं पिण जणिय हरिउ णवि सो परमप्पड भावि ॥ ४८ ॥ कर्मभिः यस्य जनयद्भिरपि निजनिजकार्यं सदापि । किमपि न जनितो हृतः नैव तं परमात्मानं भावय ॥ ४८ ॥ कर्मभिर्यस्य जनयद्भिरपि । किम् । निजनिजकार्य सदापि तथापि किमपि न जनितो हतश्च नैव तं परमात्मानं भावयत । यद्यपि व्यवहारनयेन शुद्धात्मस्वरूपप्रतिबन्धकानि कर्माणि सुखदुःखादिकं निजनिजकार्यं जनयन्ति तथापि शुद्धनिश्वयनयेन अनन्तज्ञानादिस्वरूपं न हृतं न विनाशितं न चाभिनवं जनितमुत्पादितं किमपि यस्यात्मनस्तं परमात्मानं वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावयेत्यर्थः । अत्र यदेव कर्मभिर्न हृतं न चोत्पादितं चिदानन्दैकस्वरूपं तदेवोपादेयमिति तात्पर्यार्थः ॥ ४८ ॥ अथ यः कर्मनिबद्धोऽपि कर्मरूपो न भवति कर्मापि तद्रूपं न संभवति तं परमात्मानं भावयेति कथयति ४७ [कर्मभिः] ज्ञानावरणादि कर्म [ सदापि ] हमेशा [निजनिजकार्यं] अपने अपने सुख-दुःखादि कार्यको [जनयद्भिरपि] प्रगट करते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयकर [ यस्य ] जिस आत्माका [ किमपि ] कुछ भी अर्थात् अनंतज्ञानादिस्वरूप [ न जनितः ] न तो नया पैदा किया और [ नैव हृतः ] न ही विनाश किया, और न दूसरी तरहका किया, [तं] उस [ परमात्मानं ] परमात्माको [ भावय] तू चिंतवन कर || भावार्थ - यद्यपि व्यवहारनयसे शुद्धात्मस्वरूपके रोकनेवाले ज्ञानावरणादिकर्म अपने अपने कार्यको करते हैं, अर्थात् ज्ञानावरण कर्म तो ज्ञानको ढँकता है, दर्शनावरणकर्म दर्शनको आच्छादन करता है, वेदनीय कर्म साता असाता उत्पन्न करके अतीन्द्रियसुखको घातता है, मोहनीयकर्म सम्यक्त्व तथा चारित्रको रोकता है, आयुकर्म स्थितिके प्रमाण शरीरमें रखता है, अविनाशी भावको प्रगट नहीं होने देता, नामकर्म नाना प्रकार गति जाति शरीरादिको उपजाता है, गोत्रकर्म ऊँच नीच गोत्रमें डाल देता है, और अन्तरायकर्म अनंतवीर्य (बल) को प्रगट नहीं होने देता । इस प्रकार ये कार्यको करते हैं, तो भी शुद्धनिश्चयकर आत्माके अनंतज्ञानादि स्वरूपका इन कर्मोंने न तो नाश किया, और न नया उत्पन्न किया, आत्मा तो जैसा है वैसा ही है । ऐसे अखंड परमात्माका तू वीतराग-निर्विकल्पसमाधिमें स्थिर होकर ध्यान कर । यहाँपर यह तात्पर्य है, कि जो जीवपदार्थ कर्मोंसे न हरा गया, न उपजा, किसी दूसरी तरह नहीं किया गया, वही चिदानन्द स्वरूप उपादेय है ||४८॥ Jain Education International इसके बाद जो आत्मा कर्मोंसे अनादिकालका बँधा हुआ है, तो भी कर्मरूप नहीं होता, और कर्म भी आत्मस्वरूप नहीं होते; आत्मा चैतन्य है, कर्म जड हैं, ऐसा जानकर उस परमात्माका तू For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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