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________________ -दोहा ४६] परमात्मप्रकाशः ४५ विषयोऽपि पश्चेन्द्रियैश्च न ज्ञात इत्यर्थः। स एवंलक्षणः परमात्मा भवतीति । अत्र य एव पञ्चेन्द्रियविषयसुखास्वादविपरीतेन वीतरागनिर्विकल्पपरमानन्दसमरसीभावमुखरसास्वादपरिणतेन समाधिना ज्ञायते, स एवात्मोपादानसिद्धमित्यादिविशेषणविशिष्टस्योपादेयभूतस्यातीन्द्रियमुखस्य साधकखादुपादेय इति भावार्थः ॥ ४५॥ अथ यस्य परमार्थेन बन्धसंसारौ न भवतस्तमात्मानं व्यवहारं मुक्त्वा जानीहि इति कथयति जसु परमत्थे बंधु णवि जोइय ण वि संसार । सो परमप्पउ जाणि तुहुँ मणि मिल्लिवि ववहारु ॥ ४६ ॥ यस्य परमार्थेन बन्धो नैव योगिन् नापि संसारः । तं परमात्मानं जानीहि त्वं मनसि मुक्त्वा व्यवहारम् ॥ ४६॥ जसु परमत्थे बंधु णवि जोइय ण वि संसारु यस्य परमार्थेन बन्धो नैव हे योगिन् नापि संसारः। तद्यथा—यस्य चिदानन्दैकस्वभावशुद्धात्मनस्तद्विलक्षणो द्रव्यक्षेत्रकालभवभावरूपः परमागमप्रसिद्धः पश्चमकारः संसारो नास्ति, इत्थंभूतसंसारस्य कारणभूतप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशभेदभिन्नकेवलज्ञानाधनन्तचतुष्टयव्यक्तिरूपमोक्षपदार्थाद्विलक्षणो बन्धोऽपि नास्ति, सो परमप्पउ जाणि तुहं मणि मिल्लहिं ववहारु तमेवेत्थंभूतलक्षणं परमात्मानं मनसि व्यवहारं मुक्त्वा जानीहि, वीतरागनिर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा भावयेत्यर्थः । अत्र य एव शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणेन संसारेण बन्धनेन च रहितः स एवानाकुलवलक्षणसर्वप्रकारोपादेयभूतमोक्षसुखसाधकलादुपादेय इति तात्पर्यार्थः ॥ ४६॥ रसका आस्वादरूप, परमसमाधि करके जो जाना जाता है, वही परमात्मा है, वह ज्ञानगम्य है, इंद्रियोंसे अगम्य है, और उपादेयरूप अतीन्द्रिय सुखका साधन अपना स्वभावरूपे वही परमात्मा आराधने योग्य है ॥४५॥ आगे जिसके निश्चयकर बंध नहीं हैं, और संसार भी नहीं है, उस आत्माको सब लौकिक व्यवहार छोडकर अच्छी तरह पहचानो, ऐसा कहते हैं-योगिन्] हे योगी, [यस्य] जिस चिदानन्द शुद्धात्माके [परमार्थेन] निश्चय करके [संसारः] निज स्वभावसे भिन्न द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भावरूप पाँच प्रकार परिवर्तन (भ्रमण) स्वरूप संसार [नैव] नहीं है, [बन्धो नापि] और संसारके कारण जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशरूप चार प्रकारका बंध भी नहीं है । जो बंध केवलज्ञानादि अनंतचतुष्टयकी प्रगटतारूप मोक्ष-पदार्थसे जुदा है, [तं परमात्मानं] उस परमात्माको [त्वं] तू [मनसि व्यवहारं मुक्त्वा ] मनमेंसे सब लौकिक व्यवहारको छोडकर तथा वीतरागसमाधिमें ठहरकर [जानीहि] जान, अर्थात् चिन्तवन कर ॥ भावार्थ-शुद्धात्माकी अनुभूतिसे भिन्न जो संसार और संसारका कारण बंध इन दोनोंसे रहित और आकुलतासे रहित ऐसे लक्षणवाला मोक्षका मूलकारण जो शुद्धात्मा है, वही सर्वथा आराधने योग्य है ॥४६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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