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________________ [१८] शिथिलता आ गई परन्तु अब उस संस्थाका काम श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगासके ट्रस्टियोंने सम्भाल लिया है और सुचारुरूपसे पूर्वानुसार सभी कार्य चल रहा है । श्रीमद्जीके स्मारक श्रीमद्जीके अनन्य भक्त आत्मनिष्ठ श्री लघुराजस्वामी (श्री लल्लुजी मुनि) की प्रेरणासे श्रीमद्जीके स्मारकके रूपमें और भक्तिधामके रूपमें वि० सं० १९७६ की कार्तिकी पूर्णिमाको अगास स्टेशनके पास 'श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम' की स्थापना हुई थी । श्री लघुराज स्वामीके चौदह चातुर्मासोंसे पावन हुआ यह आश्रम आज बढ़ते बढ़ते गोकुल सा गाँव बन गया है । श्री स्वामीजी द्वारा योजित सत्संगभक्तिका क्रम आज भी यहाँ पर उनकी आज्ञानुसार चल रहा है । धार्मिक जीवनका परिचय करानेवाला यह उत्तम तीर्थ बन गया है । संक्षेपमें यह तपोवनका नमूना है । श्रीमद्जीके तत्त्वज्ञानपूर्ण साहित्यका भी मुख्यतः यहींसे प्रकाशन होता है । इस प्रकार यह श्रीमद्जीका मुख्य जीवंत स्मारक है। इसके अतिरिक्त वर्तमानमें निम्नलिखित स्थानोंपर श्रीमद् राजचन्द्र मंदिर आदि संस्थाएँ स्थापित है जहाँ पर मुमुक्षु-बन्धु मिलकर आत्मकल्याणार्थ वीतराग-तत्त्वज्ञानका लाभ उठाते हैं-ववाणिया, राजकोट, मोरबी. सायला. वडवा. खंभात. काविठा. सीमरडा, वडाली, भादरण, नार, सुणाव, नरोडा, सडोदरा, धामण, अहमदाबाद, ईडर, सुरेन्द्रनगर, वसो, वटामण, उत्तरसंडा, बोरसद, बम्बई (घाटकोपर एवं चौपाटी), देवलाली, बैंगलोर, मैसूर, हुबली, मद्रास, यवतमाल, इन्दोर, आहोर, गढ सिवाणा, मोम्बासा (आफ्रिका) इत्यादि । अन्तिम प्रशस्ति आज उनका पार्थिव देह हमारे बीच नहीं है मगर उनका अक्षरदेह तो सदाके लिये अमर है । उनके मल पत्रों तथा लेखोंका संग्रह गर्जरभाषामें 'श्रीमद राजचंद्र' ग्रन्थमें प्रकाशित हो चका है (जिसका हिन्दी अनुवाद भी प्रगट हो चुका है) । वही मुमुक्षुओंके लिए मार्गदर्शक और अवलम्बनरूप है । एक एक पत्रमें कोई अपूर्व रहस्य भरा हुआ है । उसका मर्म समझनेके लिये संतसमागमकी विशेष आवश्यकता है । इन पत्रोंमें श्रीमद्जीका पारमार्थिक जीवन जहाँ तहाँ दृष्टिगोचर होता है । इसके अलावा उनके जीवनके अनेक प्रेरक प्रसंग जानने योग्य है, जिसका विशद् वर्णन श्रीमद् राजचंद्र आश्रम प्रकाशित 'श्रीमद् राजचंद्र जीवनकला' में किया हुआ है (जिसका हिंदी अनुवाद भी प्रकट हो चुका है ) । यहाँ पर तो स्थानाभावसे उस महान् विभूतिके जीवनका विहंगावलोकनमात्र किया गया है। ___ श्रीमद् लघुराजस्वामी (श्री प्रभुश्रीजी) 'श्री सद्गुरुप्रसाद' ग्रन्थकी प्रस्तावनामें श्रीमद्जीके प्रति अपना हृदयोद्गार इन शब्दोंमें प्रकट करते हैं-"अपरमार्थमें परमार्थके दृढ आग्रहरूप अनेक सूक्ष्म भूलभूलैयाँके प्रसंग दिखाकर, इस दासके दोष दूर करने में इन आप्त पुरुषका परम सत्संग और उत्तम बोध प्रबल उपकारक बने हैं। संजीवनी औषध समान मृतको जीवित करें, ऐसे उनके प्रबल पुरुषार्थ जागृत करनेवाले वचनोंका माहात्म्य विशेष विशेष भास्यमान होनेके साथ ठेठ मोक्षमें ले जाय ऐसी सम्यक् समझ (दर्शन) उस पुरुष और उसके बोधकी प्रतीतिसे प्राप्त होती है; वे इस दुषम कलिकालमें आश्चर्यकारी अवलम्बन है । प्रम माहात्म्यवंत सद्गुरु श्रीमद् राजचंद्रदेवके वचनोंमें तल्लीनता, श्रद्धा जिसे प्राप्त हुई है या होगी उसका महद् भाग्य है । वह भव्य जीव अल्पकालमें मोक्ष पाने योग्य है।" ऐसे महात्माको हमारे अगणित वन्दन हों ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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