SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मप्रकाशः -दोहा ६ ] तान् पुनर्वन्दे सिद्धगणान् ये आत्मनि वसन्तः । लोकालोकमपि सकलं इह तिष्ठन्ति विमलं पश्यन्तः ॥ ५ ॥ ते पुणु वंदर सिद्धगण तान् पुनर्वन्दे सिद्धगणान् । जे अप्पाणि वसंत लोयालोउ वि सयलु इहु अत्थ (च्छ ) हिं विमलु णियंत ये आत्मनि वसन्तो लोकालोकं सततस्वरूपपदार्थ निश्चयन्त इति । इदानीं विशेषः। तद्यथा-तान् पुनरहं वन्दे सिद्धगणान् सिद्धसमूहान् वन्दे कर्मक्षयनिमित्तम् । पुनरपि कथंभूतं सिद्धस्वरूपम् । चैतन्यानन्दस्वभावं लोकालोकव्यापिसूक्ष्मपर्यायशुद्धस्वरूपं ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणम् । निश्चय एकीभूतव्यवहाराभावे स्वात्मनि अपि च सुखदुःखभावाभावयोरेकीकृत्य स्वसंवेद्यस्वरूपे स्वयत्ने तिष्ठन्ति । उपचरितासद्भूतव्यवहारे लोकालोकावलोकनं स्वसंवेद्यं प्रतिभाति, आत्मस्वरूपकैवल्यज्ञानोपशमं यथा पुरुषार्थपदार्थदृष्टो भवति तेषां वाद्यवृत्तिनिमित्तमुत्पत्तिस्थूलसूक्ष्मपरपदार्थव्यवहारात्मानमेव जानन्ति । यदि निश्चयेन तिष्ठन्ति तर्हि परकीयसुखदुःखपरिज्ञाने मुखदुःखानुभवं प्रामोति, परकीयरागद्वेषहेतुपरिज्ञाने च रागद्वेषमयत्वं च मामोतीति महदूषणम् । अत्र यत् निश्चयेन स्वस्वरूपेऽवस्थानं भणितं तदेवोपादेयमिति भावार्थः ॥ ५॥ ___ अथ निष्कलात्मानं सिद्धपरमेष्ठिनं नत्वेदानीं तस्य सिद्धस्वरूपस्य तत्माप्त्युपायस्य च प्रतिपादकं सकलात्मानं नमस्करोमि केवल-दसण-णाणमय केवल-मुक्ख-सहाव । जिणवर वंदउँ भत्तियए जेहिं पयासिय भाव ॥ ६ ॥ लोकके शिखर ऊपर विराजते हैं, तो भी शुद्ध निश्चयकर अपने स्वरूपमें ही स्थित है, उनको मैं नमस्कार करता हूँ-['अहं'] मैं [पुनः] फिर [तान्] उन [सिद्धगणान्] सिद्धोंके समूहको [वन्दे] वंदता हूँ [ये] जो [आत्मनि वसन्तः] निश्चयनयकर अपने स्वरूपमें तिष्ठते हुए व्यवहारनयकर [सकलं] समस्त [लोकालोकं] लोक अलोकको [विमलं] संशय रहित [पश्यन्तः] प्रत्यक्ष देखते हुए [तिष्ठन्ति] ठहर रहे हैं । भावार्थ-मैं कर्मोंके क्षयके निमित्त फिर उन सिद्धोंको नमस्कार करता हूँ, जो निश्चयनयकर अपने स्वरूपमें स्थित है, और व्यवहारनयकर सब लोकालोकको निसंदेहपनेसे प्रत्यक्ष देखते हैं, परंतु पदार्थों में तन्मयी नहीं हैं, अपने स्वरूपमें तन्मयी है । यदि परपदार्थोंमें तन्मयी हो, तो परके सुख दुःखसे आप सुखी दुःखी होवे, ऐसा उनमें कदाचित् नहीं है । व्यवहारनयकर स्थूलसूक्ष्म सबको केवलज्ञानकर प्रत्यक्ष निःसंदेह जानते हैं, किसी पदार्थसे राग द्वेष नहीं है । यदि रागके हेतुसे किसीको जाने, तो वे राग द्वेषमयी होवें, यह बडा दूषण है, इसलिये यह निश्चय हुआ कि निश्चयनयकर अपने स्वरूपमें निवास करते हैं परमें नहीं, और अपनी ज्ञायकशक्तिकर सबको प्रत्यक्ष देखते हैं, जानते हैं । जो निश्चयकर अपने स्वरूपमें निवास कहा, इसलिये वह अपना स्वरूप ही आराधने योग्य है, यह भावार्थ हुआ ।।५।। १ पाठांतर-निश्चयन्त = निश्चयन्तस्तिष्ठति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy