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________________ योगीन्दुदेवविरचितः [ पीठिकाचौदत्यपरिहारमुख्यत्वेन च 'लक्षणछंद' इत्यादि सूत्रत्रयम् । इति चतुर्विंशतिदोहकसूत्रैकचूलिकावसाने सप्त स्थलानि गतानि । एवं प्रथमपातनिका समाप्ता । अथवा प्रकारान्तरेण द्वितीया पातनिका कथ्यते। तद्यथा-प्रथमतस्तावदहिरात्मान्तरात्मपरमात्मकथनरूपेण प्रक्षेपकान् विहाय प्रयोविंशत्यधिकशतसूत्रपर्यन्तं व्याख्यानं क्रियत इति समुदायपातनिका । तत्रादौ 'जे जाया' इत्यादि पञ्चविंशतिसूत्रपर्यन्तं त्रिधात्मपीठिकाव्याख्यानम् , अथानन्तरं 'जेहउ णिम्मलु' इत्यादि चतुर्विंशतिसूत्रपर्यन्तं सामान्यविवरणम्, अत ऊर्ध्वं 'अप्पा जोइय सव्वगउ' इत्यादित्रिचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं विशेषविवरणम् , अत ऊवं 'अप्पा संजमु' इत्याधेकत्रिंशत्सूत्रपर्यन्तं चूलिकाव्याख्यानमिति प्रथममहाधिकारः समाप्तः। अथानन्तरं मोक्षमोक्षफलमोक्षमार्गस्वरूपकथनमुख्यत्वेन प्रक्षेपकान् विहाय चतुर्दशाधिकशतद्वयसूत्रपर्यन्तं द्वितीयमहाधिकारः प्रारभ्यत इति समुदायपातनिका। तत्रादौ सिरिगुरु' इत्यादित्रिंशत्सूत्रपर्यन्तं पीठिकाव्याख्यानं, तदनन्तरं 'जो भत्तउ' इत्यादिषत्रिंशत्सूत्रपर्यन्तं सामान्यविवरणम्, अथानन्तरं 'सुद्धहं संजमु' इत्याचेकचत्वारिंशत्सूत्रपर्यन्तं विशेषविवरणं, तदनन्तरं प्रक्षेपकान् विहाय सप्तोत्तरशतपर्यन्तमभेदरत्नत्रयमुख्यतयाचूलिकाव्याख्यानं, इति द्वितीयपातनिका ज्ञातव्या ॥ ___ इदानीं प्रथमपातनिकाभिप्रायेण व्याख्याने क्रियमाणे ग्रन्थकारो ग्रन्थस्यादौ मङ्गलार्थमिष्टदेवतानमस्कारं कुर्वाणः सन् दोहकसूत्रमेकं प्रतिपादयतिफलके कथनकी मुख्यताकर तथा गर्वके त्यागकी मुख्यताकर 'लक्खण छंद' इत्यादि तीन दोहे हैं । इस प्रकार चूलिकाके अंतमें चौबीस दोहोंमें सात स्थल कहे गये हैं । इस तरह तीन महा अधिकारोंमें अंतर स्थल अनेक हैं । एक तो इस प्रकार पातनिका कही, अथवा अन्य तरह कथनकर दूसरी पातनिका कहते हैं-पहले अधिकारमें बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्माके कथनकी मुख्यताकर क्षेपकोंको छोडकर एकसौ तेईस दोहे कहे है । उनमेंसे 'जे जाया' इत्यादि पच्चीस दोहा पर्यंत तीन प्रकार आत्माके कथनका पीठिका व्याख्यान, 'जेहउ णिम्मलु' इत्यादि चौबीस दोहा पर्यंत सामान्यवर्णन, 'अप्पा जोइय सव्वगउ' इत्यादि तेतालीस दोहा पर्यंत विशेष वर्णन और ‘अप्पा संजमु' इत्यादि इकतीस दोहा पर्यंत चूलिका व्याख्यान है । इस तरह अन्तर अधिकारों सहित पहला महाधिकार कहा । इसके बाद मोक्ष, मोक्षफल और मोक्षमार्गके स्वरूपके कथनकी मुख्यताकर क्षेपकोंके सिवाय दोसौ चौदह दोहा पर्यंत दूसरा महाधिकार है । उसमें 'सिरि गुरु' इत्यादि तीस दोहा पर्यंत पीठिकाव्याख्यान, 'जो भत्तउ' इत्यादि छत्तीस दोहा पर्यंत सामान्यवर्णन और 'सुद्धह संजमु' इत्यादि एकतालीस दोहा पर्यंत विशेषवर्णन है, उसके बाद 'उक्तं च' को छोडकर एक सौ सात दोहा पर्यंत अभेदरत्नत्रयकी मुख्यताकर चूलिका व्याख्यान है । इस तरह दूसरी पातनिका जाननी चाहिये । __ अब प्रथम पातनिकाके अभिप्रायसे व्याख्यान किया जाता है, उसमें ग्रंथकर्ता श्रीयोगीन्द्राचार्य ग्रंथके आदिमें मंगलके लिये इष्टदेवता श्रीभगवानको नमस्कार करते हुए एक दोहा छंद कहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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