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________________ १३२ परमात्मप्रकाश सोलापुरकी एक नई प्रतिसे मैंने यह अंश उद्धृत किया है, और बम्बईकी एक प्राचीन प्रतिके सहारे श्री प्रेमीजीने इसका संशोधन किया है । पं० प्रेमीजीका कहना है कि कुछ अन्य प्राचीन प्रतियोंके साथ इसका मिलान करनेपर अब भी भाषासम्बन्धी कुछ भेद निकल सकते हैं । क्योंकि इसे प्रचलित भाषामें लानेके लिये नकल करते समय शिक्षित लेखक यहाँ-वहाँ भाषासम्बन्धी सुधार कर सकता है । अपभ्रंशसाहित्यके विद्यार्थियोंको इससे एक अच्छी शिक्षा मिलती है और अपभ्रंश ग्रन्थोंकी विभिन्न प्रतियोंमें जो स्वरभेद देखा जाता है, उसपर भी प्रकाश पडता है। टीकाका परिचय-इस टीकामें कोई मौलिकता नहीं है । ब्रह्मदेवकी संस्कृत टीकाका यह अनुवादमात्र है । ब्रह्मदेवके कुछ कठिन पारिभाषिक शब्दोंको हिंदीमें सुगमतासे समझा दिया है । ब्रह्मदेवके समान दौलतरामजीने भी पहले शब्दार्थ दिया है, और बादमें ब्रह्मदेवके अनुसार ही संक्षेपमें भावार्थ दिया है । इस बातको कोई अस्वीकार नहीं कर सकता कि इस हिंदी अनुवादके ही कारण जोइन्दु और उनके परमात्मप्रकाशको इतनी ख्याति मिल सकी है । परमात्मप्रकाशके पठन-पाठनमें दौलतरामजीका उतना ही हाथ है, जितना समयसार और प्रवचनसारके पठन-पाठनमें राजमल्ल और पाण्डे हेमराज का। पं० दौलतरामजीका समय-दौलतरामजी खण्डेलवाल थे, उनका गोत्र काशलीवाल था । उनके पिता आनन्दराम थे, जन्मभूमि बसवा थी किंतु वे जयपुरमें रहते थे, तथा राजाके प्रधान कर्मचारी थे । उनकी रचनाओंको देखनेसे मालूम होता है कि वे संस्कृतके अच्छे विद्वान थे, और अपनी मातृभाषासे भी बहुत प्रेम करते थे । सम्वत् १७९५ में जब उन्होंने अपना क्रियाकोश समाप्त किया, वे किसी जयसुत राजाके मंत्री थे, और उदयपुरमें रहते थे। अपने हरिवंशपुराणमें वे लिखते हैं कि जयपुरके दीवान प्रायः जैनसम्प्रदायके होते हैं । उनके समकालीन दीवान रतनचंद्र थे । उन्होंने सं० १७९५ में क्रियाकोश समाप्त किया, और १८२९ में हरिवंशपुराण, अतः उनका साहित्यिक कार्यकाल ई० की १८वीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध जानना चाहिये। उनकी रचनाएँ-उनके क्रियाकोशका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं । जयपुरके एक धार्मिक गृहस्थ रायमल्लकी प्रार्थना पर उन्होंने सम्वत् १८२३ में पद्मपुराणकी हिन्दीटीका की थी, इसके बाद १८२४ में आदिपुराणकी, १८२९ में हरिवंशपुराण और श्रीपालचरित्रका हिन्दी-गद्यमें अनुवाद किया, इसके बाद ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीकाके आधारपर परमात्मप्रकाशकी हिंदी टीका की । इसके बाद सं० १८२७ में उन्होंने पं० प्रवर टोडरमल्लजी रचित पुरुषार्थसिद्धयुपायकी अपूर्ण हिन्दीटीकाको पूर्ण किया । प्रेमीजीका मत है कि पुराणोंके इन हिन्दी-अनुवादोंने जैनपरम्पराका केवल रक्षण और प्रचार ही नहीं किया किन्तु जैनसमाजके लिये ये बहुत लाभदायक सिद्ध हुए। ४ इस ग्रन्थके सम्पादनमें उपयुक्त प्रतियोंका परिचय _ 'ए' प्रति-यह प्रति भाण्डारकर प्राच्यविद्यामन्दिर पूनासे प्राप्त हुई थी । इसमें १२४ पृष्ठ और प्रत्येक पृष्ठमें १३ लाइनें हैं । दोहोंके नीचे ब्रह्मदेवकी संस्कृतटीका है जो बिल्कुल शुद्ध है । इस संस्करणकी संस्कृत टीकाका इसीके आधारसे संशोधन किया है । _ 'बी' प्रति-सदलगानिवासी मेरे काका स्वर्गीय बाबाजी उपाध्येके संग्रहसे यह प्रति प्राप्त हुई थी । 'ए' प्रति की तरह यह भी देवनागरी अक्षरोंमें लिखी है । किन्तु यह अच्छी हालतमें नहीं है । यह कमसे कम २०० वर्ष प्राचीन है । मध्यमें दोहोंकी क्रम-संख्यामें कुछ भूल हो गई है । अन्तिम दोहेपर ३४२ नम्बर पडा है । ___ 'सी' प्रति-यह प्रति भाण्डारकर प्राच्यविद्यामन्दिर पूना की है । इसमें २१ पृष्ठ और हरएक पृष्ठमें ९ लाइनें हैं, सुन्दर देवनागरी अक्षरों में लिखी हुई है । इसमें केवल दोहे ही हैं, जो शुद्ध हैं । किन्तु लेखककी भूलसे कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001876
Book TitleParmatmaprakasha and Yogsara
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorA N Upadhye
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2000
Total Pages550
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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