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प्रस्तावनाका हिंदी सार
११९ परमात्मप्रकाशमें यह दोहा (२-१४७) इस प्रकार हैबलि किउ माणुस-जम्मडा देक्खंतहँ पर सारु । जइ उट्ठभइ तो कुहइ अह डज्झइ तो छारु ॥ ___ दोनोंकी दूसरी पंक्ति बिल्कुल एक है, किन्तु सूत्रका उदाहरण देनेके लिये पहलीमें परिवर्तन किया गया है । ४. सूत्र २-८० के उदाहरणमें, हेमचन्द्र एक छोटासा वाक्य उधृत करते हैं
____ 'वोद्रहद्रहम्मि पडिया'। यह परमात्मप्रकाशके दोहा (२-११७) का अंश है, जो इस प्रकार हैते चिय धण्णा ते चिय सप्पुरिसा ते जियंतु जियलोए । वोहहदहम्मि पडिया तरंति जे चेव लीलाए ।
हेमचन्द्रने रकारका प्रयोग किया है, किन्तु परमात्मप्रकाशकी किसी भी प्रतिमें हेमचन्द्रका पाठ नहीं मिलता । इस पद्यकी भाषा अपभ्रंश नहीं है और यह गाथा भी 'उक्तं च' करके है, अतः इसके परमात्मप्रकाशका मूल पद्य होनेमें सन्देह है । मेरा विचार है कि स्वयं जोइन्दुने ही इसे अपने ग्रन्थमें सम्मिलित किया होगा, क्योंकि परमात्मप्रकाशकी कमसे कम पद्य संख्यावाली प्रतियोंमें भी यह पद्य पाया जाता है।
हेमचन्द्रकी अपभ्रंश-हेमचन्द्रने अपभ्रंशकी उपभाषाओंका वैसा स्पष्ट निर्देश नहीं किया, जैसा मार्कण्डेय तथा बादके ग्रन्यकारोंने किया है । उनके नियमोंका सावधानीके साथ अध्ययन करनेसे पता चलेगा कि उनकी अपभ्रंश एक ही प्रकारकी नहीं है, किन्तु कई उपभाषाओंका मिश्रण है । हेमचन्द्रके कथन “प्रायो ग्रहणाधस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते तस्यापि कचित् प्राकृतवत् शौरसेनीवध कार्यं भवति ।" (४-३२९) से यह स्पष्ट है कि वे अपनी अपभ्रंशके दो आधार मानते हैं, एक प्राकृत और दूसरा शौरसेनी । चतुर्थपादके सूत्र ३४१, ३६०, ३७२, ३९१, ३९३, ३९४, ३९८, ३९९, ४१४, ४३८ आदि तथा उनके उदाहरण अपभ्रंशके जिन तत्त्वोंको बतलाते हैं, वे उसीके अन्य सूत्रोंसे मेल नहीं खाते । हेमचन्द्रकी प्राकृत भाषाओंके साथ जब हम उनकी कछ विशेषताओंका अध्ययन करते हैं. तो वे आपसमें इतनी विरुद्ध जान पडती हैं कि एक भाषामें उनकी उपस्थिति संभव प्रतीत नहीं होती। _परमात्मप्रकाशकी अपभ्रंशके साथ हेमचन्द्रकी अपभ्रंशकी तुलना-हेमचन्द्रका सूत्र “स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" स्वर-परिवर्तनके लिये कोई आवश्यक नियामक नहीं हैं । किन्तु इसका केवल इतना ही अभिप्राय है कि हेमचन्द्रकी अपभ्रंशमें स्वर-परिवर्तन काफी स्वतंत्र है । परन्तु परमात्मप्रकाशमें हम इस प्रकारकी स्वतंत्रता नहीं देखते । व्यञ्जनोंके परिवर्तनके सम्बन्धमें हेमचन्द्र कहते हैं (४-३९६) कि असंयुक्त 'क' 'ख' 'त' 'थ' 'प' और 'फ' के स्थानमें क्रमशः 'ग' 'घ' 'द' 'ध' 'ब' और 'भ' होते हैं, किन्तु हेमचन्द्रके उदाहरणोंमें प्रयुक्त कुछ प्रयोग उनके इस नियमको भंग कर देते हैं । परमात्मप्रकाशमें भी इस नियमका अनुसरण नहीं किया गया है, किन्तु हेमचन्द्रने प्राकृत भाषाके लिये व्यञ्जनोंके सम्बन्धमें जो नियम निर्धारित किया है कि असंयुक्त 'क' 'ग' 'च' 'ज' 'त' 'द' 'प' 'य' और 'व' का प्रायः लोप होता है (१-१७७) परमात्मप्रकाश उससे सहमत है । अनुनासिक अक्षरोंके सम्बन्धमें, हेमचन्द्रके व्याकरणके अनुसार शब्दके आदिमें 'न' हो तो वह कायम रहता है तथापि अपभ्रंश-पद्योंके अपने नवीन संस्करणमें पिशेलने आदिम तथा मध्यम 'न' के स्थानमें 'ण' को ही रक्खा है । परमात्मप्रकाशमें भी सर्वत्र 'ण' ही आता है, केवल 'ब' प्रतिमें कहीं कहीं 'न' पाया जाता हैं । कन्नड प्रतियोंमें सर्वत्र 'ण' ही है । इसके सिवा भी दोनों ग्रन्थोंकी अपभ्रंशमें कई विशेषताएँ हैं, जो अंग्रेजी प्रस्तावनासे जानी जा सकती हैं।
तुलनाका निष्कर्ष-परमात्मप्रकाशकी अपभ्रंश सर्वत्र एकसी है; जब कि हेमचन्द्रकी अपभ्रंशमें कमसे कम दो उपभाषाएँ मिश्रित हैं । कुछ हेर-फेरके साथ हेमचन्द्रने परमात्मप्रकाशसे बहुत से दोहे उद्धृत किये हैं, और अपने व्याकरणके लिये उससे काफी सामग्री भी ली है । स्वर और विभक्ति सम्बन्धी छोटे मोटे भेदोंको भुलाकर भी परमात्मप्रकाश और हेमचन्द्रके व्याकरणकी अपभ्रंशोंमें काफी मौलिक अन्तर पाया जाता है।
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