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नोट- सप्तपदी जिसका अर्थ सात पद या सात बार ग्रहण करने का है पवित्र अग्नि के गिर्द सात बार फेरे लेने को कहते हैं । अग्नि वैराग्य का रूपक है, इस कारण सप्तपदी का गूढ़ार्थ यही है कि जिससे दूल्हा दुलहिन के हृदय पर यह बात सात मर्तबा याने पूरे तौर से, अंकित कर दी जावे कि विवाह का असली अभिप्राय धर्मसाधन है न कि विषय सेवन ।
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चतुर्थी मध्ये ज्ञायन्ते दोषा यदि वरस्य चेत् । दत्तामपि पुनर्दद्यात्पिताऽन्यस्मै विदुर्बुधाः || १७४।।
चौथो में यदि कोई दोष वर में मालूम हो जायँ ने दी हुई कन्या को भी उसका पिता किसी दूसरे वर को दे, ऐसा बुद्धिमानों का मत है ॥ १७४ ॥
प्रवरैक्यादिदोषः स्युः पतिसङ्गादधो यदि ।
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दत्तामपि हरेद्दद्यादन्यस्मा इति केचन ॥ १७५ ॥
अथवा किन्हां- किन्हीं ऋषियों का ऐसा भी मत है कि यदि पतिसंग से प्रवरैक्यादि दोष मालूम हो तो कन्यादाता कन्या को उस वर को न देकर किसी अन्य वर को दे ।। १७५ ।।
कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेदिति गालवः ।
कस्मिंश्चिद्देश इच्छन्ति न तु सर्वत्र केचन ।। १७६ ||
गालव ऋषि कहते हैं कि कलियुग में पुनर्विवाह का निषेध है । इसके अतिरिक्त यह किसी-किसी देश में ही होता है, सर्वत्र नहीं होता ||१७६ ||
प्रजां दशमे वर्षे स्त्रीप्रजां द्वादशे त्यजेत् ।
मृतप्रजां पञ्चदशे सद्यस्त्वप्रियवादिनीम् ॥ १८७॥
दसवें वर्ष तक जिस स्त्री के सन्तान न हो तो उसके होते हुए दूसरा विवाह करे । जिसके केवल कन्याएँ ही होती हैं। तो बारह
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