SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और अनीति में कोई मतभेद नहीं माना जा सकता है, क्योंकि अनीति की नीयत अविवाहित पुत्रो को वश्वित रखने की नहीं हो सकती है जब कि अविवाहित पुत्री को विवाहित पुत्री के मुकाबले में सब जगह प्रथम स्थान दिया गया है। अविवाहित पुत्री का स्त्री-धन उसकी मृत्यु होने पर उसके भाई को मिलता है ( २१ ) | विवाहिता पुत्रियाँ अपनी अपनी माताओं का स्त्री-धन पाती हैं (२२) । यदि कोई पुत्री जीवित न हो तो उसकी पुत्री और उसके प्रभाव में मृतक स्त्री का पुत्र अधिकारी होगा ( २३ ) । विवाहिता पुत्री के स्त्री-धन का स्वामी उसके पुत्र के प्रभाव में उसका पति होता है ( २४ ) । स्त्री धन के अतिरिक्त विधवा की अन्य सम्पत्ति का अधिकारी उसका पुत्र होगा ( २५ ) | यदि एक से अधिक विधवाएँ हों तो उन सबकी सम्पत्ति का अधिकारी ( उनके पति का ) पुत्र होगा ( २६ ) । यह पूर्व कथन किया जा चुका है कि यदि विधवा अपनी प्रिय पुत्री के स्नेह वश दत्तक न ले तो उसकी सम्पत्ति की अधिकारिणी वह पुत्री होगी न कि उसके पति के भाई भतीजे ( २७ ) | यह अधिकार वसीयत के रूप में है जिसके बमूजिब विधवा अपनी सम्पत्ति की अधिकारिणी किसी पुत्री - विशेष को बनाती है। क्योंकि विधवा जैन-नीति के अनुसार पूर्ण स्वामिनी होती है और वह अपनी सम्पत्ति चाहे जिसको अपने जीवन काल में तथा C (२१) श्रह ० १२८ । ( २२ ) इन्दू ० ( २३ ) १५ । ,, c ( २४ ) भदू ० २६; वर्ध ० १३; श्रह ० ३५ । ॐ "" ( २५ ) २१; १०; २८ । ( २६ ) ४०। ( २७ ) Jain Education International १४ । " "2 ܕܕ ३६–६८; अह० ११५ – ११७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy