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________________ मत है (देखो श्लो० ३०)। परन्तु दूसरे श्लोक में यह उल्लेख है कि क्षत्रिय पिता के क्षत्राणी से उत्पन्न हुए पुत्र को तीन भाग और वैश्याणी के पुत्र को दो भाग मिलेंगे, और यह भी उल्लेख है कि वैश्य माता पिता के लड़के दो दो भागों के और शूद्र माता के लड़के एक भाग के अधिकारी हैं (देखो श्लोक ३१)। यदि यही अर्थ ठीक है तो इससे विदित होता है कि शूद्रा माता की सन्तान भी भागाधिकारी कभी गिनी गई थो। अन्यान्य वर्णो में पारस्परिक विवाह का कम हो जाना इस मतभेद का कारण हो सकता है। या शूद्रों के जातिभेद के कारण यह मतभेद हुआ है। परन्तु स्वयं जिन संहिता ही में शूद्रा स्त्री की सन्तान का अन्ततः दाय से वञ्चित किया जाना ३२ वें श्लोक में मिलता है। वैश्य पिता के पुत्र जो सवी स्त्री से हों पिता की सब सम्पत्ति पावेंगे (६६)। यदि शूद्रा से कोई पुत्र हो तो वह भागाधिकारी न होगा (७०)। शूद्र पिता और शूद्रा माता के पुत्र अपने पिता की सम्पत्ति बराबर बराबर पायेंगे (७१)। दासीपुत्रों के अधिकार जैन-नीति में दासीपुत्रों का कोई अधिकार नहीं है (७२)। परन्तु वे गुज़ारे के अधिकारी हैं (७३)। और जो बाप ने उन्हें अपनी जीवनावस्था में दे दिया है वह उनका है (७४)। उच्च वर्णवाले भाई को चाहे वह छोटा ही हो और यदि एक से अधिक हों (६६) अह. ४१; भद्र० ३६ । (७०) " ४१; " ३६ । (७१) " ४४, " ३७ । (७२) भद्र० ३४; और देखो अम्बाबाई ब० गोविन्द २३ बम्बई २५७ ।। (७३) अह. ४३। (७४) " ४२। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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