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________________ हो सकता था, यदि कुछ शास्त्रों के नाम किन्हीं मुकदमात में न ले दिये गये होते। इससे अदालत के दिल में रुकावट होनी चाहिए थी। तो भी यह कहना आवश्यकीय है कि बुद्धिमान जज महोदयों ने पूरी पूरी छान-बीन की कोशिश की थी और तिस पर भी यदि जैन-लॉ अप्राप्त रूप से ही विख्यात रहा तो ऐसी दशा में यह आशा नहीं की जा सकती है कि वे बिला लिहाज़ समय के उसके उपलब्ध की प्रतीक्षा करते रहते ! स्वयं जैनियों को अन्याय का बोझ अपने कन्धों पर उठाना चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि तीसरी तनकोह जो इस मुकदमे में हुई थी इन शब्दों में थी। "जैनी लोग किस शास्त्र या टेक्स्ट बुक ( Text-book ) के पाबन्द हैं ?" इस तनकीह के अन्तर्गत हर दो पक्षवालों को सुअवसर प्राप्त था कि वह जैन-लॉ का अस्तित्व आसानी से प्रमाणित कर सकें। परन्तु एक पक्ष को तो प्रलोभन ने अन्धा बना दिया था, और दूसरे को उन कुल बाधाओं का सामना करना पड़ता था जिन्होंने अभी तक पूर्णतया जैन शास्त्रों को अदालतों में पेश होने से रोक रक्खा है। प्रोवी कौंसिल में बुद्धिमान् बैरिस्टरा से, जिन्होंने मुकदमा की पैरवी की, यह आशा नहीं हो सकती थी कि वे जैन-ला के अस्तित्व के बारे में अधिक जानकारी रखते होंगे। और रेस्पान्डेन्ट के कौंसिल के हक़ में तो हिन्दुस्तान की दोनों अदालतों की तजवीजे सहमत थीं फिर वह क्यों जैन-लॉ की सहायता को अपने प्राकृतिक कर्तव्य के विरुद्ध चलकर आता। रहा अपीलाण्ट का कौसिल। मगर उसके लिये बयान तहरीरी के विरुद्ध जैन-लॉ के अस्तित्व और उसकी स्वतन्त्रता की घोषणा करना अपने मवक्किल के अभिप्रायों की विरुद्धता करना होता। इस दशा में बहस मुख्यतः किन्हों किन्हीं कानूनी नियमों पर होती रही जिनका सम्बन्ध रिवाज से है और For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001856
Book TitleJain Law
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampat Rai Jain
PublisherDigambar Jain Parishad
Publication Year1928
Total Pages200
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Ethics
File Size9 MB
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