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मेरी समझ में यह नहीं पाता कि इस बात से कि जैनी ब्राह्मयों से काम लेते हैं यह कैसे अनुमान किया जा सकता है कि जैन "हिन्दू डिस्सेंटर्ज हैं। क्या ऐसी प्राशा की जा सकती है कि ऐसे दो समाजों में जो एक ही देश में अज्ञात प्राचीन काल से साथ साथ रहती सहती चली आई हैं, नितान्त पारस्परिक व्यवहार न होंगे। बात यह है कि जैन धर्म का संख्या-वर्धक-क्षेत्र विशेष करके हिन्दू समाज ही रहा है, और गत समय में जैनियों और हिन्दुओं में पारस्परिक विवाह बहुत हुआ करते थे। ऐसे विवाहों से उत्पन्न सन्तान कभी एक धर्म को कभी दूसरे धर्म को मानती थी, और कभी उनके प्राचार-विचार में दोनों धर्मों के कुछ कुछ सिद्धान्त सम्मिलित रहते थे, और इस कारण से अनभिज्ञ विदेशी तो क्या अल्प-बुद्धि स्वदेशी भी भ्रम में पड़ सकते हैं। इसके अतिरिक्त कहीं कहीं जैन धर्मानुयायी बिलकुल नहीं रहे, किन्तु जैन मन्दिर वहाँ अभी पाये जाते हैं। उन मन्दिरों के दैनिक पूजा-प्रबन्ध के वास्ते ब्राह्मण पुजारी को रखना ही पड़ता है। इन सब बातों से ५०-६० वर्ष पूर्व तो गैरजानकार विदेशी अनभिज्ञ हो सकता था, किन्तु प्राजकल के एक भारतीय ग्रन्थकर्ता की ऐसी अनभिज्ञता क्षन्तव्य नहीं है। उसको तो अपने विचार प्रकाशित करने के पूर्व इन सब बातों को विशेष करके भले प्रकार अध्ययन करना उचित है।
अब केवल शेष इतना ही रह गया है कि इस नियम की-कि हिन्दू-लॉ जैनियों पर लागू होगा, यदि उनका कोई विशेष रिवाज प्रमाणित न हो-प्रारम्भिक इतिहास की खोज की जावे। महाराजा गोविन्दनाथ राय ब० गुलालचन्द वगैरह के मुक़दमे का जिसका फैसला सन् १८३३ में प्रेसीडेन्सी सदर कोर्ट बङ्गाल ने किया और
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